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उच्च हिमालयी बुग्यालों में उगने वाला फरण है औषधियों का खजाना

पारम्परिक औषधि का कोई विपरीत प्रभाव न होने के कारण तथा स्वस्थ जीवन शैली के लिए वर्तमान समय में भी इनका महत्व काफी अधिक बढ़ गया है। अभी भी विकसित देशों में 80 प्रतिशत जनंसख्या पारम्परिक औषधीय ज्ञान पर ही निर्भर करती हैं।

डॉ. राजेंद्र डोभाल, महानिदेशक -UCOST उत्तराखण्ड.

एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में लगभग 25 प्रतिशत औषधियां plant based drugs पर ही निर्भर करती है। भारतीय पारम्परिक औषधीय ज्ञान में Allium की अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। Allium जीनस अन्तर्गत लगभग 750 प्रजातियां पाई जाती है, जिसमें से 34 प्रजातियां केवल भारत में ही उपलब्ध हैं। इन्ही में से एक भारत के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाये जाने वाला बहुमूल्य पौधा Allium stracheyi जिसको भोटिया, बोक्सा, थारू, कोल्टस, किंन्नौरी तथा जौनसारी लोग ही बहुतायत में औषधि तथा Flavoring agent (तड़का) के रूप में प्रयोग करते है, जिसका अभी भी बहुत कम वैज्ञानिक अध्ययन किया गया है।

उत्तराखण्ड, दार्जिलिंग, सिक्किम, नेपाल, जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, नेपाल, उत्तरी पाकिस्तान, तिब्बत मे फरण का बहुतायत प्रयोग मसाले के रूप में किया जाता है। यूनानी तथा आयुर्वेदिक औषधि निर्माण मे भी एक मुख्य अवयव के रूप प्रयोग किया जाता है। उत्तराखण्ड के निति माणा घाटी के कुछ स्थानों पर व्यवसायिक रुप से भी उगाई तथा बेची जाती है।

फरण (जम्बू) जिसको गढवाल के कुछ क्षेत्रों में लादो के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखण्ड में फरण उच्च हिमालयी क्षेत्रों में जहाँ सूर्य की पर्याप्त रोशनी हो, आसानी से स्वतः ही उग जाता है। उच्च हिमालयी क्षेत्रां से भोटिया, बोक्सा, थारू, कोल्टस, किंन्नौरी तथा जौनसारी जनजातियां द्वारा फरण को सुखाया जाता है या इसके फूल एकत्रित कर जगह-जगह स्थानीय बाजार में बेचा जाता है। इसका अधिकतर उपयोग केवल तड़का तथा औषधियों के रूप में ही किया जाता है।

पारम्परिक रूप से Allium stracheyi के सम्पूर्ण पौधे में ही औषधीय गुण पाये जाते है। पुरातन काल में वैद्यों द्वारा इसके कन्द को घी में पकाकर हैजा तथा अतिसार के निवारण के लिये प्रयोग किया जाता था तथा कच्चे कंद को सर्दी जुखाम व खासी के निवारण के लिये उपयोग जाता था।

जंगलों से इस बहुमूल्य पौधे के अवैज्ञानिक दोहन की वजह से Red data book of Indian Plants में दर्ज किया गया है। फरण एक अत्यंत महत्वपूर्ण पौधा है, इसमें सल्फर तत्वो की बहुतायत मात्रा के साथ-साथ Antioxidants, Anti inflammatory तथा Antimicrobial गुण भी पाये जाते हैं। फरण की पत्तियों को Anti inflammatory तथा Analgesic गुणों के लिये ही प्रयोग किया जाता है। वैज्ञानिक अध्ययनो के परिणामस्वरूप यह पाया गया है की फरण मे 61 प्रतिशत inflammation कम करने की क्षमता होती है जो की संस्तुत दवा डाईक्लोफैनेक सोडियम से भी बेहतर पाई जाती है तथा 64.62 प्रतिशत analgesic क्षमता होती है जो एसप्रीन से भी बेहतर होती है।

Kattel एवं Maga 1994 के एक अध्ययन के अनुसार इसमें मौजूद 96 विभन्न रासायनिक अवयवों की पहचान की गयी जिनमें से प्रमुखतः 27 केवल सल्फर अवयव पाये जाते हैं। फरण मे सल्फर तत्वो के विद्यमान होने की वजह से Blood Cholesterol को भी नियंत्रित करता है तथा पाचन क्रिया के लिये Tonic की तरह काम करता है। फरण में बहुत सारे Aromatic अवयव होने के कारण इसको उत्तराखण्ड तथा देश भर में Flavoring Agent के रूप में बहुतायत मांग रहती है। शायद इन्ही महत्वपूर्ण गुणों की वजह से हिमालयी क्षेत्रो के स्थानीय लोगो द्वारा फरण को प्रतिदिन खाने मे प्रयोग किया जाता है क्योंकि पुरातन समय से ही दुर्गम हिमालयी क्षेत्रो में कई तरह के बहुमुल्य पौधों का भण्डार रहा है तथा स्थानीय निवासी इस परिस्थितिकी मे मौजूद Bio-resources का अपनी दिनचर्या मे उपयोग कर ही जीवन यापन करते रहे है।

जहां तक फरण की पोष्टिक गुणवत्ता की बात की जाये तो इसमें प्रोटीन 4.26 प्रतिशत, वसा 0.1 प्रतिशत, फाइबर 79.02 प्रतिशत, कार्बोहाईड्रेट 3.18 प्रतिशत, कैल्शियम 0.8 मिग्रा0, फास्फोरस 0.05 मिग्रा0, मैग्नीशियम 0.82 मिग्रा0 तथा पोटेशियम 0.88 मिग्रा0 तक पाये जाते है।

लगभग 60-70 वर्ष पूर्व फरण उच्च हिमालय में तिब्बत सीमा से जुड़े क्षेत्रों में बहुतायत मात्रा में पाया जाता था तथा तिब्बती लाम्बा, भोटिया द्वारा भारत के विभिन्न स्थानों में मसालें व औषधि के रूप में बेचा जाता था। ता सन् 1961 में चीन युद्ध के बाद भारत- तिब्बत व्यापार बन्द होने के कारण केवल स्थानीय लोगों द्वारा घरेलू बाजार में सीमित क्षेत्रों से दोहन कर बेचा जाता रहा है।

नेपाल में सूखी फरण को 300 से 400 प्रति किग्रा0 तक बेचा जाता है। जबकि शुद्ध रूप से फरण को बाजार मे 1000 से 2500 प्रति किग्रा0 कीमत की दर से बेचा जाता है। The Scitech Journal (2014) एन0सी0 शाह के एक अध्ययन के अनुसार मौसमी Allium stracheyi की बाजार कीमत रूपये 2000 से 2500 प्रति किग्रा0 तक है। वर्तमान में उत्तराखण्ड के कई स्थानीय बाजार में फरण को रूपये 25 से 30 प्रति 10 ग्राम तक बेचा जाता है।

वैसे तो सम्पूर्ण उत्तराखण्ड अपनी जैव विविधता, पारम्परिक औषधीय ज्ञान तथा औषधीय पौधों के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। परन्तु अभी उच्च हिमालयी क्षेत्रों में कई सारे बहुमूल्य पौधे हैं जिनकी स्थानीय एवं राष्ट्रीय बाजार में ही अच्छी कीमत है। इनका विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन तथा वन विभाग तथा वन पंचायत के समन्वय से संरक्षण व व्यवसायिक खेती के रूप में अपनाये जाने की आवश्यकता है ताकि इस बहुमूल्य सम्पदा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिकी का जरिया बनाया जा सके।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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