Inspirational story

अब पूरा शहर जानता है इस गुमनाम बेटी को

पापा, क्या स्कूल जाने वाले बच्चों को ही बेटियां कहते हैं या फिर पुलिस, आर्मी में भर्ती होने वाली ही होती हैं बेटियां। इंजीनियर, डॉक्टर, पायलट, अफसर बेटी…। दंगल में दिखीं थी पहलवान बेटियां। ओलंपिक में नजर आई थीं बेटियां। कहां नहीं हैं बेटियां। पर पापा यह वो वाली बेटी नहीं है जो टीवी में, अखबारों में और फिल्मों में दिखती हैं। पापा, क्या यह बेटी नहीं है।

पापा, क्या यह भी ऐसा कुछ बनना चाहती होगी कि सब इसको बेटी कहकर पुकारें। क्या यह भी सपने देखती होगी। क्या यह भी मेरी तरह स्कूल जा सकती है। क्या इसके पास भी मेरे जैसे खिलौने होंगे। इसके मम्मी-पापा इसके साथ यहां क्यों नहीं हैं। आप तो मुझको सड़क पर अकेले नहीं आने देते। क्या इसको सड़क पर गाड़ियों से डर नहीं लगता।

क्या यह बारिश में भींगने से बीमार नहीं होती। यह यहां कूड़े में क्या बीन रही है। क्या गंदगी का यह ढेर इसको बीमार नहीं करेगा। कौन धुलाता होगा इसके हाथ। इसकी मम्मी ने इसके बाल क्यों नहीं बहाए। कहीं हाथ में कोई सुई न चुभ जाए। पापा, क्या आप इसके लिए कुछ कर सकते हो।

मेरी टीचर तो बताती है, सफाई करते समय गलव्स पहनो। साफ सफाई रखो। घर से रोजाना टिफिन लाओ। फास्ट फूड मत खाओ। खाना खाने से पहले हाथ धोओ। घर से बॉटल में आरओ का पानी लाओ। नैल्स अच्छी तरह काटो, साफ कपड़े पहनो। रोजाना नहाकर आओ। शूज हमेशा पॉलिश रहने चाहिए। रूमाल लेकर आओ… और भी न जाने कितने तरह की इंस्ट्रक्शंस फॉलो कराती हैं टीचर।

घर से स्कूल जाते समय एक बेटी वो तमाम सवाल अपने पापा से करती है, जो उसके मन में आते हैं। यह सवाल वो मैले कुचेले कपड़े पहने, धूल से सने बालों वाली दस-12 साल की एक लड़की को देखकर करती थी। कुछ सवालों के जवाब मिल जाते और कई आसपास चलती गाड़ियों के शोर में दब जाते। स्कूल में एंट्री के साथ यह बेटी भी अपनी किताबों में व्यस्त हो जाती और पापा भी दफ्तर की राह पकड़ लेते।

अब यह रोजाना के सवाल थे। कभी सवालों की संख्या कम हो जाती और कभी बढ़ जाती। पापा, इन सभी सवालों को सुनने के आदी हो गए थे और बेटी सवाल करने की। लेकिन इससे कूड़े के ढेर में जिंदगी तलाशती उस लड़की पर कोई असर नहीं पड़ता। वो तो रोजाना उस गंदगी के ढेर पर मिलती, जिसके पास से होकर गुजर रहे लोग नाक दबाने को मजबूर होते थे। वो अपने इस काम में व्यस्त रहती, क्योंकि सके पास न तो सपने थे और न ही कोई प्रेरणा।

सुबह उठने के बाद स्कूल की तैयारी में लगी बेटी, लगातार एक और नजारा वर्षों से देखती आ रही थी। वो थी उसकी कॉलोनी के तमाम लोगों की कूड़ा फेंकने की स्टाइल। कूड़ा भरी पॉलीथिन को कभी प्लाट में फेंका जाता तो कभी म्युनिसिपिलिटी के डब्बे में। निशाना सही लगा तो डब्बे में, नहीं तो सड़क पर फैलना तय है।

प्लास्टिक हो या फिर सब्जियां या फिर खाने-पीने का सामान, सभी के लिए एक ही पॉलीथिन, वो भी जबरदस्त गांठ बांधकर। डर रहता था कि कहीं फेंकते हुए कूड़ा बिखर न जाए। उसकी मम्मी भी ऐसा ही कर रही थी।घर के पास नाली भी इन्हीं थैलियों से चोक हो गई थी।
एक दिन स्कूल जाते वक्त कूड़े का ढेर तो दिखता है पर वो लड़की नहीं। पापा, वह आज क्यों नहीं दिखी। जवाब मिला- कहीं गई होगी। तुम अपनी पढ़ाई में ध्यान लगाओ। एक दिन, दो दिन व तीन दिन और फिर एक-दो सप्ताह, वो नहीं दिखाई दी। स्कूल वाली बिटिया के तमाम सवाल, तो उस लड़की पर टिके थे और वो उसके बारे में खूब सोचती थी। अपने स्कूल में भी उसके बारे में खूब बातें करती थी।

पर अब जब वो दो हफ्ते से नहीं दिख रही है तो सवालों का बढ़ना लाजिमी था। पापा हमें देखना होगा, वो यहां क्यों नहीं है। जवाब मिला- बेटा , वो कहीं गई होगी, आप क्यों परेशान हो रहे हो। आ जाएगी, हमें उससे क्या लेना है। वो अपना काम कर रही थी और हम अपना। हम तो उसको जानते भी नहीं थे, उसके लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है।

उसको खूब प्यार करने वाले पापा से, इस जवाब की उम्मीद नहीं थी। उसका सब्र टूट गया और उसने जिद ठान ली कि कुछ भी हो जाए, हमें उसका पता लगाना है। आप कहते हो, उसका हमारा क्या रिश्ता था, हम उसे नहीं जानते थे। उससे हमारा रिश्ता था- स्वच्छता का, स्वास्थ्य का, इंसान होने का। हम पॉलीथिन में बांधकर अपने घरों की गंदगी को फेंकते थे, वो उसकी गांठ खोलकर गीला और सूखा कूड़ा अपने हाथों से अलग करती थी।

अपनी सेहत से ज्यादा वो हमारी सेहत के लिए काम कर रही थी, भले ही पेट की खातिर ही सही, वो ऐसा करती थी। हमारे घरों में सफाई बनी रहे, इसके लिए वो गंदगी के ढेर पर बैठकर काम करती थी। हमारे घरों की नालियां चोक न हो जाएं, वो हमारे फेंके पॉलीथिन को इकट्ठा करती थी।

पापा, उसके बारे में पता लगाना होगा, कि वो कहां है। मुझे लगता है कि वो बीमार हो गई होगी, उसे हमारी मदद की जरूरत है। उसने हमारी भी बहुत मदद की है। हमारे जैसे तमाम लोगों के लिए धरती को स्वच्छ बनाने की पहल कर रही थी वो। स्कूल वाली बिटिया की जिद काम कर गई और अब उसको तलाश करने के बेटी के मिशन में पापा भी शामिल हो गए।

आसपास पूछकर उसका घर तलाश ही लिया। तंग गली में था उसका घर। घर पर कोई नहीं था, आस पड़ोस से मालूम हुआ कि वो बच्ची तो चार दिन पहले ही दुनिया को अलविदा कह गई। उसको सांस की बीमारी थी और पैर में ब्लेड लगने से घाव हो गया था। सही तरीके से मरहम पट्टी नहीं होने से सेप्टिक फैल गया था।

अभी उस बच्ची के बारे में पता ही कर रहे थे कि पीछे से आवाज आई। साहब, हम गरीब लोग हैं। बच्चों से लेकर बड़े तक अलग-अलग जगहों पर कूड़े में रोजी रोटी तलाशते हैं। सुबह होते ही बहुत सारे बच्चों की राह स्कूल नहीं, बल्कि गटर व नालों की ओऱ जाती है। उस बच्ची के पिता बीमार हैं और अभी उनको कुछ लोग अस्पताल ले गए हैं।

आखिर वो कर भी क्या सकते थे, निराश होकर लौट आए, लेकिन अब बेटी के साथ पिता के इरादे भी पुख्ता हो गए थे। संवेदनशील हैं, इसलिए इस घटना ने उनको भीतर तक झकझोर दिया। साथ ही स्कूल वाली बिटिया के कई सवालों के जवाब मिल गए, पहले सवाल का जवाब है- कि वो भी भारत की बेटी थी, बहादुर बेटी, जो जाने अनजाने में ही सही स्वच्छता और सेहत के लिए काम कर रही थी। वो गुमनाम बेटी थी और स्वच्छता ही सेवा के धर्म के लिए उसने अपनी जान दे दी थी। वो हमे्ं बता गई थी कि स्वच्छता घर से ही शुरू करो। घर-घर स्वच्छता की अलख जगाने का संदेश दे गई है।

फिर शुरू हो गई एक अनूठी मुहिम, जिसमें सिर्फ बच्चे शामिल हुए, हालांकि सहयोग तो बड़ों का चाहिए। इससे यह उम्मीद भी जाग गई कि धीरे-धीरे ही सही पर बड़े स्तर पर बदलाव की शुरुआत हो चुकी है। ये बच्चे कल के जिम्मेदार नागरिक बनेंगे और अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाएंगे, इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है।

दूसरे दिन स्कूल पहुंची इस बेटी के बैग में था, पंफलेट्स का बंडल। क्या आप जानना चाहेंगे उन पंफलेट्स में क्या लिखा था। आइए आपको पढ़ाते हैं उस पंफलेट को, जिसमें दुनिया को अलविदा कह चुकी बेटी कहती है-

मैं इसी दुनिया, देश और शहर की बेटी हूं। आप ही नहीं, मुझे कोई भी नहीं जानता। लोगों का मानना है कि मैं अपने लिए काम करती हूं। यह सही भी है, मैं क्या, मेरे जैसे तमाम लोग पेट की भूख मिटाने के लिए ही काम करते हैं, भले ही हमें गंदगी के ढेर पर दिन गुजारना पड़े। एक बात और, हम भले ही रोटी के लिए यह काम करते हैं, लेकिन रोटी खा नहीं पाते।

गंदगी को छांटते-छांटते हम इस लायक नहीं रहते कि कुछ खा सकें। जीना है, इसलिए गले से नीचे कुछ उतारने की हिम्मत जुटा ही लेते हैं। हमारे पास आप जैसे सपने नहीं हैं। सपनों को जगाने के लिए प्रेरणा चाहिए, जो हमारे पास इसलिए भी नहीं है, क्योंकि होश संभालने के बाद हौसले की कम और खुद को पालने की जिम्मेदारी ज्यादा थी।

आप गलतियां नहीं कर सकते, क्योंकि आप सभ्य शहरी हो और हम शहर में रहते हुए भी नहीं। मेरी गलती थी कि मैंने खुद का ध्यान नहीं रखा और संक्रमण का शिकार हो गई। आप तो व्यस्त हैं, शायद इसलिए एक ही प़ॉलीथिन में कूड़ा भरकर फेंक दिया होगा। शायद आप ठीक करते थे कि घर से ही कूड़ेदान को निशाना बनाकर गंदगी को बाहर फेंक देते थे, वो भी गांठ बांधकर।

वो तो मैं ही गलत थी, जो उस कूड़े में इतना मशगूल हो गई कि ब्लेड कब मेरे पैर में लगा और मुझे पता ही नहीं चला। मैं बीमार पड़ गई, आप क्यों आते मुझे देखने, क्योंकि मुझे तो आप नहीं जानते थे। इंसानों की दुनिया में रहने के बाद भी मानवता से जुदा रहना मेरे लिए किसी अभिशाप से कम नहीं था।

मुझे कोई हक नहीं था कि मैं आपका सहयोग पाकर खूबसूरत जिंदगी को जान सकूं। मैं तो केवल कूड़े के लिए बनी थी और अंतिम सांस तक उसके ही इर्द गिर्द रही। अगर आपको इंसानियत पर भरोसा है तो मेरे लिए कुछ कर दो। मेरे जैसे बेटे हो या बेटियां उनको स्कूलों की ओर मोड़ दीजिए। बचपन बचाने के लिए आपकी पहल की जरूरत है।

क्या आप- जैविक और अजैविक कूड़े को घर पर ही अलग-अलग डिब्बों में डाल सकते हैं।
क्या आप कूड़ा सड़कों की जगह कूड़ेदान में डालने का संकल्प ले सकते हैं।
क्या पालीथिन का इस्तेमाल करना बंद कर सकते हैं आप।
क्या नालियों और खाली प्लाटों को कूड़ा करकट से मुक्त कराएंगे आप।
क्या नदियों और नहरों को प्रदूषण मुक्त बनाने में योगदान दे सकते हैं।
क्या जल और वायु प्रदूषण को कम करने में मदद करेंगे आप।
क्या शहर को हराभरा रखने में योगदान देंगे आप। -आपके शहर की एक गुमनाम बेटी

स्कूल में पंफलेट्स बांटने का काम चुपके-चुपके होने लगा। बच्चों के जरिये अभिभावकों तक गुमनाम बेटी की बात पहुंचाने की कोशिश रंग लाने लगी और एक-एक करके कई बच्चे इस मुहिम का हिस्सा बन गए। अभी तक अवेयरनेस के स्तर पर ही शुरुआत हुई थी। सूचना स्कूल प्रबंधन के पास पहुंच गई और इस अभियान से जुड़े छात्र-छात्राओं को बुला लिया गया। मैनेजमेंट ने उनकी बात सुनी और खुद को भी इस मुहिम से जोड़कर हरसंभव मदद का वादा किया।

स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के लगभग 500 परिवार इस आंदोलन का हिस्सा बन गए। इन परिवारों ने अपने मोहल्लों में घर-घर जाकर लोगों से कूड़ा प्रबंधन घर पर ही करने, घर के आसपास स्वच्छता का ध्यान रखने की अपील की। एक-एक परिवार ने पांच-पांच नये परिवारों और फिर इन पांच-पांच नये परिवारों ने अन्य 25-25 नये परिवारों को जागरूक किया।

इनमें से कई परिवारों ने उन बच्चों को स्कूल भेजने की जिम्मेदारी ली, जो कभी सुबह से शाम तक कुछ इकट्ठा करने के लिए शहर का चक्कर लगाते थे। इस तरह जिंदगी को नई राह मिल गई और एक गुमनाम बेटी को नई पहचान। जय हिन्द

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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