AnalysisBlog LiveFeatured

अखबार के लिए महत्वपूर्ण होती है डेस्क और रिपोर्टर्स में खींचतान

अखबारों में डेस्क और रिपोर्टिंग वालों के बीच बहसबाजी होती रहती है। हालांकि अखबारों में डेस्क को सर्वोपरि माना जाता है, पर कई बार ऐसा नहीं होता। क्योंकि यह कुल मिलाकर संपादक पर भी निर्भर करता है। अगर संपादक रिपोर्टिंग के अनुभव वाले हैं तो उनका रुझान रिपोर्टर के साथ होता है और अगर वो डेस्क पर काम करने का ज्यादा अनुभव लिए होते हैं तो डेस्क वालों को तरजीह देते हैं।

ऐसा अक्सर होता है, पर अपने अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकता हूं कि इन दोनों के बीच खबरों में टाइमिंग, फैक्ट और प्लेसमेंट को लेकर अक्सर खींचतान होती है और संपादक कभी भी बैलेंस नहीं हो सकते। पर मेरा मानना है कि ्अखबार की बेहतरी के लिए इस खींचतान में भी सौहार्द्रपूर्ण समन्वय जरूरी है।

मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूं कि रिपोर्टर और डेस्क के स्तर पर कुछ खास खबरों पर बहुत मेहनत होती है। न तो रिपोर्टर चाहते हैं कि उनकी खबर में कोई फैक्ट छूट जाए और न ही डेस्क चाहती है कि उसके संपादन से लेकर प्लेसमेंट और प्रेजेंटेशन में कोई कमी रह जाए। दूसरे दिन प्रकाशित होने वाली किसी भी खास खबर को लेकर जितनी खुशी संबंधित रिपोर्टर को होती है, उसे थोड़ा कम या ज्यादा खुशी उस व्यक्ति को होती है, जिसने उसे संपादित करके प्लेसमेंट व प्रजेंटेशन में बेहतर प्रयास किया। यह बात भी सही है कि किसी एक खबर को लेकर बहस तभी तक रहती है, जब तक कि दूसरे संस्करण की तैयारी शुरू न हो जाए। यह चलता रहता है, इसलिए इसको कोई खास महत्व नहीं दिया जाता।

मेरे लिए सबसे खुशी की बात यह रही है कि मैंने अखबारों में 20 साल की अवधि में दस साल रिपोर्टिंग और दस साल डेस्क पर काम किया। मुझे रिपोर्टिंग और डेस्क दोनों की चुनौतियों के बारे में पता है। मुझे यह स्वीकार करने में कोई परहेज नहीं है कि डेस्क पर बैठते ही मैं भी रिपोर्टर की दिक्कतों को नजरअंदाज कर जाता और रिपोर्टिंग के समय डेस्क की दिक्कतों को भूल जाता। ऐसा क्यों होता है, इसकी वजह है दोनों ही पक्षों की अपनी अपनी समस्याएं। अभी फिलहाल डेस्क की बात करते हैं।

डेस्क के पास समय का दबाव, खबरों की एक-एक लाइन पढ़ने का टास्क, पेजों के लिए खबरों की स्क्रीनिंग, मुख्य खबरों की लिस्टिंग, अन्य संस्करणों के लिए खबरों व फोटो का कोआर्डिनेशन, हर पेज के लिए प्लानिंग, ऊपर से मीडिया मार्केटिंग टीम से मिलने वाली खबरों की लिस्ट, फॉलोअप, वैल्यू एडीशन, पेज वन से कनेक्ट, पैकेजिंग, कोई खबर पेज पर छोटी हो गई तो उसको बढ़ाना, बड़ी हो गई तो उसका कम करने की माथापच्ची, जगह नहीं है तो चार कॉलम के लिए निर्धारित की खबर को दो या एक कॉलम में ही निपटा देना। इससे भी छोटी करने के लिए उसको संक्षिप्त खबरों के कॉलम में प्लेस कर देना। इसको अखबारी भाषा में खबरों को छिलाई कहा जाता है।

कभी कभी डेस्क के कुछ साथियों के लिए किसी अनावश्यक विस्तार की गई खबर को चार कॉलम से सिंगल में बदलना या फिर संक्षिप्त में ढाल देना, आत्ममुग्धता की वजह होता है।इस तरह की अनावश्यक बढ़ा चढ़ाकर कम तथ्यों वाली खबरों के बारे में ललित निबंध या जलेबियां तलने जैसे शब्दों का इस्तेमाल डेस्क पर किया जाता है। पर छिलाई उन्हीं खबरों की होती है, जो कम महत्व की होती हैं और साफ साफ यह बताती है कि रिपोर्टर के पास आज कुछ परोसने के लिए नहीं है। इन खबरों को छोटा करने का फायदा फिलर ( यानी जहां सिंगल या संक्षिप्त खबरें कम पड़ जाती हैं) के स्थान पर होता है, ऐसे में समय पर संस्करण निकालने के दबाव में ये महत्वपूर्ण हो जाती हैं। फिलहाल संस्करण निकाल दो, कल कोई पूछोगा तो डेस्क के पास जवाब होता है।

संपादकों के पास अक्सर शिकायतें करने वाले रिपोर्टर डेस्क की नजर में होते हैं। उनकी खबरों में मिलने वाली खामियों, यहां तक बिन्दी, मात्रा और वाक्य विन्यास में गलतियों का पूरा ख्याल डेस्क के पास रहता है। अक्सर ऐसा भी होता है कि फॉलोअप में कुछ रिपोर्टर केवल अपडेट फैक्ट चेंज करके पहले दिन की पूरी की पूरी कॉपी पेस्ट कर देते हैं। डेस्क पर खबर पकड़ी भी जाती है, अगर रिपोर्टर ने डेस्क से अच्छे संबंध बनाए हैं तो खबर बिना किसी दिक्कत के पास हो जाती है। ऐसे रिपोर्टर्स का डेस्क पर पूऱा ध्यान रखा जाता है। अच्छे संबंधों का मतलब यह है कि तुम हमारे काम में दिक्कतें पैदा न करो और हम तुम्हारी किसी खबर में, ऐसा पारस्पर सौहार्द्र पूर्ण संबंधों पर ही होता है।

एक बार का किस्सा बताता हूं, मैं सिटी डेस्क का इंचार्ज था। एक रिपोर्टर, जो समाचार संपादक का बहुत खास था और इस वजह से संपादक के पास अक्सर उसकी तारीफ होती। उसकी कुछ खबरों को, जो डेट वैल्यू की नहीं होती, जिसे डेस्क वाले ललित निबंध या जलेबियां तलना कहते थे, को प्रकाशित कराने का दबाव होता था। ऐसा अक्सर हुआ, उसकी कुछ खबरों को, जिन्हें डेस्क ने पेज संख्या तीन से दस तक लगाने में कोई रूचि नहीं ली, उसको समाचार संपादक के आशीर्वाद से पेज वन पर बॉटम लगवा दिया। पूरी डेस्क को इस बात की खुशी थी कि कई दिन से बैकलॉग में पड़ी यह खबर आखिर टल गई।

एक दिन उसी रिपोर्टर की एक खबर आई, जिसे पेज 3 पर, जो किसी भी संस्करण का मुख्य पेज होता है, पर लगाने का दबाव था। संपादक से तय करा लिया गया था कि यह खबर पेज 3 पर जाएगी और यह डेट वैल्यू की है। रिपोर्टर को खबरों को डेट वैल्यू की बनाना खूब आता है। इसके लिए यह बताने की कोशिश होती है कि दूसरे अखबार के पास भी यह खबर हो सकती है। अगर हमारे यहां नहीं छपी,तो हम पीछे रह जाएंगे। या फिर कल इस मामले में कार्रवाई होनी है, अगर हमने खबर छाप दी थी, तो यह हमारी खबर का असर होगा। रिपोर्टर की ओर से ये सब खासियत गिनाई जाती हैं। कभी कभी ये बातें सही होती हैं और कभी कभी केवल खबर छपवाने के लिए ब्रांडिंग जैसी।

पेज प्लानिंग में प्रमुखता वाली इस खबर को फ्लायर छपना तय किया गया। अखबारों में हर पेज की प्लानिंग डमी मिलने से पहले ही हो जाती है। डमी मिलने पर सारी प्लानिंग चौपट होने की आशंका ज्यादा रहती है। डमी आ गई और फ्लायर लगाने के लिए जगह नहीं थी।

किसी भी पेज का फ्लायर, लीड से ऊपर लगाया जाता है। यह कोई हार्ड खबर यानि कोई बड़ी घटना या उस पेज के प्रोफाइल के हिसाब से लीड जैसा नहीं होता, पर महत्व के अनुसार, उससे कम भी नहीं होता। कभी कभी किसी पेज के लिए दो महत्वपूर्ण खबरें होने पर एक को फ्लायर ले लिया जाता है, लेकिन फ्लायर वाली खबर का नेचर डेट वैल्यू वाला भी हो सकता है और नहीं भी। पर लीड तो विशुद्ध रूप से डेट वैल्यू वाली होनी चाहिए, लेकिन कभी कभार ऐसा नहीं होता। कुल मिलाकर अखबारों में वक्त और मांग के अनुसार निर्णय लेने होते हैं।

फ्लायर कोई सॉफ्ट खबर, जिसे ज्यादा से ज्यादा लोग पड़ना चाहें, हो सकता है। यह कोई सूचना वाली, प्रेरणास्पद या इनोवेशन वाली खबर हो सकती है, जो काफी संख्या में पाठकों को प्रभावित करती है। वर्तमान में तो, संपादक के निर्देश पर चलने वाले अभियान या सप्ताह का कोई कॉलम भी फ्लायर की शेप में लगाया जाता है।

अखबार बनाने की तेजी में इसको किस खबर में इस्तेमाल करना है, पर कई बार विचार नहीं किया जाता, बस ले आउट अच्छा होना चाहिए। दिखने में पेज बैलेंस होना चाहिए।

वैसे भी किसी भी पेज का श्रृंगार कुछ नियमित कॉलम से होता है। ये कॉलम पेज के प्रोफाइल के अनुसार होते हैं, जिन पर विज्ञापन किसी आपदा सा टूट पड़ते हैं। कुल मिलाकर अखबार के किसी भी पेज का रूप रंग काफी हद तक विज्ञापन पर निर्भर करता है।

खबरों को अखबार की आत्मा तथा विज्ञापन को रगों में रक्त के साथ बहने वाले हीमोग्लोबिन का नाम दिया जाता है। आपको जानकर हंसी आएगी कि शरीर रूपी अखबारों के मुख्य पेजों से आत्मा बाहर आ जाती है और नसों में रक्त के साथ हीमोग्लोबीन तेजी से दौड़ रहा होता है। खबरें जिन्हें आत्मा कहा जाता है, हीमोग्लोबिन की कमी होने पर ही शरीर में प्रवेश कर पाती हैं, नहीं तो बैकलॉग से बाहर आने के लिए एक दिन, दो दिन या फिर एक सप्ताह लेती हैं या फिर कभी बाहर नहीं आतीं। जब शरीर में आत्मा ही नहीं होगी तो श्रृंगार कहां और किसको अच्छा लगेगा।

खैर, फिर से उसी किस्से पर आते हुए, डमी ने लीड, फ्लायर की प्लानिंग को लगभग चौपट कर दिया। देर रात में संपादक भी अपने आवास पर चले गए। अब डेस्क को निर्णय लेना था। तय हुआ कि फ्लायर के लिए जगह नहीं है, खबर कहां लगाएं। यह निर्धारित और निर्देश हैं कि खबर को पेज 3 पर लगाना है और खबरों के संपादित करने का अधिकार डेस्क के पास सुरक्षित है।

मैंने स्वयं इस खबर को सम्मान देने का बीड़ा उठाया और पांच कॉलम के लिए तैयार खबर को छह लाइन में निपटाकर पेज पर चिपकवा दिया। छह लाइन में भी खबर की आत्मा को सुरक्षित रखने के दावे के लिए तमाम दलीलें सोच ली थीं। वैसे, सच बात तो यह थी कि खबर सिंगल कॉलम ही थी। पूरी डेस्क ने उस खबर को छिलते हुए देखा और हमें लगा कि वास्तव में डेस्क ने बहादुरी का काम किया।

दूसरे दिन सुबह ही रिपोर्टर का मैसेज और उसकी नाराजगी। शाम की बैठक में संपादक की नाराजगी और हमारी दलीलों के साथ दूसरे दिन के अखबार की तैयारियां शुरू हो गईं।

ऐसा नहीं है कि डेस्क रिपोर्टर के साथ सहयोग नहीं करती, भरपूर सहयोग करती है। रिपोर्टर की फोन पर बताईं खबरों को नोट करके लिखती भी है। देरी से आने वाली बहुत सी खबरों को बेहतर प्लेसमेंट देने का प्रयास करती है। पर यह सभी कार्य अखबार हित में समन्वय से चलता है। डेस्क और रिपोर्टिंग के बीच यह द्वंद्व तब तक बड़ा मजेदार होता है, जब तक कि इसका उद्देश्य अखबार की बेहतरी हो।

रिपोर्टर्स की दिक्कतों और उन पर दबाव पर भी चर्चा करेंगे, अभी तक के लिए इतना ही…।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button