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वो सपने दिखाता है …

शहर के एक खाली मैदान में मजमा लगा था। भीड़ बढ़ती देखकर मजमे वाले को खूब मजा आ रहा है। जैसे-जैसे लोगों को मैदान में आता देखता, उसका जोश और बढ़ जाता। उसके पास दिखाने को कुछ नहीं है, लेकिन जो कुछ वो बेच रहा है, उसके लिए उसको बड़ा सौदागर कहा जाता है। कुछ लोगों के लिए वह फिजूल बातें करने वाला है और बड़ी संख्या में लोग उसको फॉलो करते हैं। वो लगातार कई साल से ऐसा कर रहा है और लोग उससे बहुत खुश दिखते हैं या फिर उसके लिए कई बार अपनी प्रतिबद्धता को सरेआम पेश कर चुके हैं, इसलिए अब चाहकर भी उसको कुछ नहीं कह सकते।

मजमा जारी है और भीड़ का आना भी। वो भी मैदान छोड़कर जाना नहीं चाहता और भीड़ भी उसको सुने बिना नहीं, क्योंकि वो सपने दिखाता है और हर उम्मीद टूट चुके लोगों के पास सुकून के लिए अब सपने ही तो बचे हैं, जो बिना दाम मिल रहे हैं। इन सपनों के सहारे जिंदगी कट रही है और कट जाएगी, ऐसी आस लोग बांधे बैठे हैं। मैं अंधेरी रात के बाद जिस रोशनी को देखकर खुश हो रहा था, उससे फैला उजाला वर्चुअल है, जो अपनी ही तरह की किसी आभासी दुनिया की सैर करा रहा है। क्या मैं सपनों वाली दुनिया की सैर भी नहीं कर सकता।

उसका साहस बढ़ता जा रहा है, क्योंकि भीड़ लगातार उसके किस्सों पर तालियां बजा रही है या यू कहें कि अंगुलियों से हथेली पीट रही है। वो तो यही जानता है कि कम लोग ही तो हैं, जो उसके सपनों वाले शो से नाराज होकर माथा पीटते हैं या गाल बजाते हैं। उसके दर्शक किसी भी कुतर्क को तर्क बनाकर उसकी इमेज बिल्डिंग में लगे हैं । वर्चुअल दुनिया में उसके किस्सों की कोई कमी नहीं है, क्योंकि सपने देखने वालों की सबसे बड़ी तादाद इस आभासी दुनिया की सैर पर ही तो है।

मैदान में जमा दर्शकों से अचानक एक सवाल पूछा जाता है कि वो अपने शहर को चमन बनता देखना चाहते हैं या नहीं। सवाल खत्म होने से पहले ही आवाज गूंजती हैं, हां…। वो कहता है, उसे सुनाई नहीं दे रहा है, जोर से बोलो। फिर शोर मचता है, हां… देखना चाहते हैं।

वो फिर सवाल दागता है कि अपने शहर को चमन बनाने के बाद क्या अंतरिक्ष में बसना चाहोगे। भीड़ सवाल को सही तरीके समझे बिना ही जवाब दे डालती है.. हां। वो फिर कहता है, जोर से बोलो….. जवाब मिलता हैं, हां… चाहते हैं।

वो कहता है- यहां मौजूद जो लोग चांद पर अपना घर बनाना चाहते हैं, वो अपने दोनों हाथ उठाएं। भीड़ तो उसके हर सवाल का जवाब दे रही है, क्योंकि वो तो यहां बिना मोल सपने हासिल करने आई है। सभी लोग अपने दोनों हाथ उठा लेते हैं। दो हजार दर्शकों के चार हजार हाथों को ऊपर उठा देखकर उसके चेहरे पर खुशी दोगुनी हो जाती है और वह और जोश में आ जाता है।

वो भीड़ से फिर पूछता है कि क्या आप लोग चाहते हैं कि चांद पर घर बनाने के बाद भी धरती पर अपने कामधंधे के लिए रोजाना आते- जाते रहोगे। भीड़ फिर कहती है… हां…। इस बार फिर भीड़ से उसका जवाब दोहरवाया जाता है। सपनों के धरती छोड़कर और हाइट पर जाने के साथ ही भीड़ का उत्साह भी दोगुना हो रहा है और मैदान में बढ़ता शोर उन लोगों को बेचैन कर रहा है, जो मजमे वाले को कोस रहे हैं।

वो फिर पूछता है- अगर चांद से धरती तक के लिए विशेष यान लगा दिए जाएं तो कैसा रहेगा। उसके सम्मोहन में बंधे दर्शकों का जोश इतना बढ़ गया कि वो समझ ही नहीं पाए कि उनसे क्या सवाल पूछा है, वो जवाब देते हैं…. अच्छा रहेगा, बहुत अच्छा रहेगा।

सपने लगातार बढ़ रहे हैं और रात आने वाली है। सिस्टम पहले वाला नहीं रहा, अब सपने पहले आते हैं और रात बाद में। अंधेरे के बाद फिर से रोशनी हो रही है, जिसका उजाला हकीकत कम, आभासी ज्यादा दिखता है। लेकिन बिनाभाव मिलने वाले सपने खुश करते हैं, तो फिर जिंदगी की परवाह नहीं। ये सपने उम्मीद बांधते हैं कि आज नहीं तो कल, जो चाहेंगे मुट्ठी में होगा। मानों हर कोई अपने घर में अलादीन का चिराग रखेगा और उसका जिन्न सारी सुविधाएं और सेवाएं पेश कर देगा, यह सोचकर भीड़ में शामिल दर्शक और भी जोशीले हो जाते हैं। उनको जोश में होश खोता देख, कुढ़ने वाले और भी बेचैन हो जाते हैं।

ऐसे में भीड़ से बाहर आकर एक दर्शक कुढ़ने वालों से यह सवाल पूछ बैठता है कि यह कहां का नियम है कि नौकरी छिनने के बाद लोग खुश नहीं हो सकते। महंगाई को लादते लादते पीठ जख्मी कराने वालों को क्या खुश होने का हक नहीं है। कहां लिखा है कि खाली जेब व्यक्ति कुछ नहीं खरीद सकता। यह बात किसने कही कि दिवालिया हो चुके लोगों को अपना एकाउंट और बैंक देखने को मौका नहीं मिल सकता। बच्चों की फीस नहीं चुकाने वालों को स्कूल जाने से रोकने का क्या कोई नया नियम बन गया है। अस्पताल में इलाज नहीं करा सकने वालों को क्या मुस्कराने का भी हक नहीं है।

दिनभर शहर दर शहर की धूल फांकने वाले हम लोगों को क्या सपने देखने का भी अधिकार नहीं है। किराये के मकान में जिंदगी गुजारने वालों को अगर कोई घर का सपना दिखा दे, तो इसमें दुखी होने की क्या बात है। उसके चेहरे पर मुस्कान ही नहीं आएगी, बल्कि वो ठीक उसी तरह जोश में होगा, जैसा कि मैं दिख रहा हूं। उसके सारे सपनों की कोई फीस नहीं चुकानी पड़ती। वो हमें बिना आक्सीजन रहने का सपना दिखा रहा है, तो इसमें बुरी बात क्या है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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