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भर दो कॉपियां, चलाते रहो पेंसिल…

मैं बहुत छोटा था, जब मां, मेरा हाथ पकड़कर लिखना सिखाती थीं। कभी मेरा हाथ पकड़कर तो कभी अक्षर पर बार-बार पेंसिल फेराकर लिखने का अभ्यास कराया जाता था। उस समय, मैं अपनी कॉपी पर जहां मन किया पेंसिल फेरा देता था। तिरछी लाइनों और कभी समझ में नहीं आने वाली आकृतियों से पेज खराब करता था। छोटा था, इसलिए मेरी यह गलतियां हंसकर माफ कर दी जाती थीं।

मैंने बड़े भाई की कई किताबों और कॉपियों को फाड़ा। उनकी किताबों पर पेन, पेंसिल फेराकर अपने ज्ञान का परिचय दिया था। दीवारों को भी कॉपी समझकर खराब करने का तमगा मुझे मिला है। मां तो थोड़ा बहुत डांटती थीं, पर पापा ने हमेशा मेरा बचाव किया और दीवारों पर मेरी कलाकारी का हंसकर स्वागत किया।

पापा तो अब नहीं रहे, पर जब मां मुझे यह बताती हैं तो सिवाय हल्की सी मुस्कराहट के मेरे पास, अपने बचाव में कोई जवाब नहीं होता है, इसलिए अब मैं किसी बच्चे को यह कहूं कि तुमने कॉपी का क्या हाल कर रखा है, तो ठीक नहीं होगा। यह बात तो बच्चों को वही समझा सकता है, जिसने कभी अपनी या किसी और कॉपी किताबों को नहीं फाड़ा हो।

लगभग 40 साल पहले का यह दृश्य धुंधला सा ही पर, मैं देख पा रहा था या यह कह सकते हैं कि याद कर रहा था। इसलिए उन दिनों को याद करने का मौका मिला तो मैंने भी बच्चों से कह दिया, कॉपियां और आ जाएंगी, पहले तुम सब अपने मन की आकृतियों से इनको भर दो। यह क्रम तब तक चलता रहे, जब तक कि तुम उन अक्षरों को बनाना न सीख लो, जो शब्दों का संसार बनाते हैं।

मैं हिन्दी वर्णमाला का ‘इ’ नहीं लिख पाता था, जिसे मेरी मां और टीचर ने लिखना सिखाया। यह जिक्र इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि मुझे शनिवार सुबह आठ से सवा नौ बजे तक केशवपुरी में रहने वाली बच्चों की पाठशाला डुगडुगी में हिन्दी पढ़ाने का अवसर मिला था।

डुग डुगी की यह क्लास बहुत अनोखी है, क्योंकि यहां वो बच्चे फिर से पढ़ने के लिए बैठ रहे हैं, जो कभी स्कूल छोड़ चुके थे। ये प्रतिदिन यहां आ रहे हैं और चाहते हैं कि उनकी क्लास सवा घंटे नहीं बल्कि चार या पांच घंटे की हो। पढ़ाई से उनका रिश्ता फिर से जुड़ा है, वो भी जिंदगीभर के लिए, क्योंकि वो पढ़ना चाहते हैं और हर पल आगे बढ़ना चाहते हैं।

करीब नौ साल का एक बच्चा ‘अ’ लिखने की बहुत कोशिश कर रहा था, पर नहीं लिख पा रहा था। मैंने उसका हाथ पकड़कर लिखना सिखाने की कोशिश की। कैरन मैम पहले से ही बच्चों को कर्व बनाने, स्टैंडिंग लाइन, स्लीपिंग लाइन और स्लान्टिंग लाइन का अभ्यास करा रही हैं, इसलिए हिन्दी के अक्षर बनाने में इस अभ्यास का काफी लाभ मिल रहा है। इस बच्चे को ज्यादा मेहनत की जरूरत नहीं पड़ी और दो-तीन बार के अभ्यास में वह ‘अ’ लिखना सीख गया।

कुछ बच्चे मेरी तरह ‘इ’ नहीं लिख पा रहे थे। कुछ बच्चों ने अक्षर तो बनाए पर वो दो लाइनों के बीच रहने वाले नियम को तोड़ रहे थे। यह देखकर मुझे अपना समय याद आ गया, जिसका जिक्र मैंने अभी अभी किया था। मैं मन ही मन मुस्करा रहा था कि ये पल तो हर किसी के जीवन में आते हैं। डुग डुगी क्लास में शनिवार को 18 बच्चे पहुंचे, सभी बच्चे अच्छा कर रहे हैं। मोहित उनियाल जी व मनीष उपाध्याय जी ने भी बच्चों को अक्षरों को सही शेप दिलाने में मदद की।

डुगडुगी स्कूल को उम्मीद है कि उसके छात्र अपने जीवन में तरक्की करेंगे, वो अपने सपनों को जरूर पूरा करेंगे, क्योंकि वो लगातार स्कूल पहुंच रहे हैं, कड़ाके की सर्दी, बारिश में भी उनके कदम स्कूल की ओर बढ़ते हैं। हम डुगडुगी स्कूल में पढ़ने वाले सभी बच्चों, खासकर बेटियों को तहेदिल से सलाम करते हैं, क्योंकि कुछ रचनात्मक सीखने, अभिनव करने, सकारात्मक बने रहने की उनकी इच्छाशक्ति ने ही तो हम सभी को बच्चों के लिए अपना कर्तव्य पूरा करने का संकल्प दिलाया है। डुग डुगी की यह ध्वनि सभी के लिए बेहतर शिक्षा, बेहतर समाज का आह्वान करती रहेगी, हमारे साथ भी और हमारे बाद भी…., जय हिन्द।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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