मेरा बचपन अधिकांश लोगों की तरह न ही बहुत अधिक लुभावना रहा और न ही रोमांच से भरा हुआ।वह साधारण ढंग से गुजरी उम्र का एक हिस्सा जरुर रहा। मेरा जन्म सुदूर सरनौल गांव में हुआ था। मां बताती हैं कि मैं जन्म से ही बेहद कमजोर था और अधिकतर बीमार ही रहा करता था। पिता जी को राजस्व विभाग की सरकारी नौकरी होने के कारण अधिकांशतः अपनी ड्यूटी पर ही घर से बाहर रहना पड़ता था इसलिए मेरा लालन-पालन गांव में ही मां व दादी जी के हाथों हुआ।बचपन से ही बहुत कमजोर होने के कारण मुझे पाचन की समस्या रहती थी।
अपनी दुर्बल काया और खराब पाचनशक्ति के कारण मैं बीमारी की चपेट में भी जल्दी आ जाता और सरकारी उपचार के बदले गांव की प्रचलित जड़ी बूटी व दूसरी चीजों ओख्ता तथा गांव के पुरोहितों की गणत व उपाय से मेरा उपचार हो जाता था। जन्म कुंडली देखकर मेरे जीवन की दशा बता दी जाती थी।यानि ओख्ता व गणत मेरे जीवन की बैशाखी थामे हुए थे।
एक बार मेरी गंभीर बीमारी पर पुरोहित जी ने अपनी गणत के आधार पर बेबाक घोषणा कर दी थी कि अब बच्चे का जीवन पांच दिन से अधिक नहीं। उनकी वाणी सुनकर घर के खूब रोना धोना हुआ था लेकिन ओख्ता अपना काम कर गया था और मेरी जान बच गई थी। अपने जीवन के काफी दिनों तक पुरोहित जी को मैं देखता रहा हूं। इस घटना ने मुझे पांचवां दिन कहानी लिखने के लिए प्रेरित किया, जो विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ ही आकाशवाणी से प्रसारित हुई।
अपनी शारीरिक दुर्बलता का मैं बहुत समय तक शिकार रहा और इस दुर्बलता के कारण मेरा नाम ही माड़ू यानि दुर्बल व्यक्ति हो गया था जो आज भी मेरे अपनों के लिए मेरे नाम के साथ जुड़ा हुआ है। बचपन की धुंधली स्मृतियों के जरिए मैं देखता हूं कि अपने घर के सामने कोठार(अन्न भंडार गृह) के साथ खड़ी बड़ी सी पटाल के कारण बनी खोह में ही मेरा अधिकांश समय गुजरता था। वहां मेरे लिए एकांत भी था और छुपने के लिए सुरक्षित स्थान भी। आसपास की खाली जगह खोदकर मैं वहां पर घर से कोई न कोई बीज लेकर बो देता था।
कुछ बड़ा होने पर माता पिता के साथ दूसरे गांव चलने के फरमान पर मैं खूब रोया था। किसी भी शर्त पर वहां चलने को राजी नहीं हुआ था।दादी जी व गांव से गहरा मोह आड़े आ रहा था। दूसरे मेरा कहना था कि दूसरे गांव मरसाड़ी(चावल मिले चौलाई की रोटी) नहीं मिलेगी। कोई प्रलोभन काम नहीं आया तब मां ने मुझे एक सिक्का थमा दिया था और मैं बाबाई( रस्सी बनाने के काम आने वाली एक तरह की घास)की गठरी का बोझ पीठ से लगाकर खिलखिलाते हुए महरगांव के लिए चल पड़ा था।मां का ममत्व जो काम नहीं कर सका था वह एक सिक्के ने कर दिखाया था।
महरगांव का एक लड़का मोहन सिंह जो गांव की प्राथमिक पाठशाला में पढ़ता था एक दिन अपनी हिन्दी की किताब मेरे पास छोड़ गया था। दूसरे दिन उसने आकर मुझसे अपनी कविता मांगी तो मेरी हालत खराब हो गई थी। क्यों न होती मैंने उस किताब के सारे चित्र ब्लेड से काट कर बरांडे में खड़े लकड़ी के खम्भों पर चिपका दिए थे। उसके धमकाने पर मैंने उसे चित्र दिखाए तो उसे खूब गुस्सा आया था।उसने मुझे बहुत डांटा डपटा,माता से शिकायत करने की धमकी दी और फिर चुपचाप अपने घर की ओर चला गया था लेकिन बहुत दिनों तक उसका अपनी किताब वापस मांगने का डर मेरे भीतर बना रहा।मेरे भीतर जमीन खोदकर क्यारी बनाना और कोई बीज बोने का शौक बहुत समय तक बना रहा।
विद्यालय जाने लगा तो पिता जी के कोरे पड़े बेकार के कागज रंगने का बहुत ही गहरा शौक लगा जो बहुत समय तक बना रहा। विद्यालय में शर्मीले स्वभाव का होने के कारण शनिवार को बाल सभा के दिन कोई कविता या गीत सुना देता था। बेहद संकोची व शर्मीले स्वभाव का होने के कारण मैं किसी से अधिक घुलता मिलता नहीं था।
यूं तो बचपन में अनेकानेक घटनाएं घटती हैं लेकिन कुछ ऐसी होती हैं जिन्हें सारी उम्र बिसराना काफी मुश्किल हो जाता है।हमारे घर के पास ही भट्ट परिवार ने मुर्गे-मुर्गियों पाल रखे थे।कभी कभार वे चुंगते हुए हमारे घर के सामने की खाली जगह पर आ जाते थे।एक दिन ऐसा ही हुआ मुझे न जाने क्या सूझी कि उनके पीछे भागने लगा।भागते समय तीन चूज़े मेरे पैरों के नीचे दबाकर मर गए। देखकर मैं बेहद घबरा गया था कि कहीं किसी को पता चल गया तो फिर मेरी खैर नहीं। बेबजह नन्हे चूजों के मरने पर मैं बहुत दुःखी था लेकिन आज तक मैंने वह बात किसी को भी नहीं बताई ।आज खुलासा कर रहा हूं लेकिन ऐसा जरुर हुआ कि जब भी मुझ पर किसी दुःख का साया पड़ा मुझे वे चूज़े याद आते रहे। यहां तक कि इकलौती बेटी रुझान के दुनिया छोड़ जाने पर भी वे चूज़े मुझे याद आए थे।
गांव से दूर ढलान पर बने विद्यालय में भारी बस्ता लेकर आना जाना, विद्यालय भवन की लिपाई पुताई करना जैसी घटनाओं के साथ भी मेरा बचपन गूंथा रहा है। गर्मी की छुट्टियों में खेत जंगल जाकर घुघुती के घोंसले खोजना, उन्हें पकड़ कर घर में पालना भी मेरे बचपन में शामिल रहा।एक बार ऐसी ही तीन घुघुतियों को एक शैतान बिल्ली ने अपना शिकार बना लिया था तब भी बहुत दुःख हुआ था। बचपन में ही मुझमें नाटकों व किताबों के प्रति रुचि पनपी थी और किताबों को सहेजने व संवारने का शौक भी उन्हीं दिनों मेरे भीतर घर कर गया था।