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मेरी समझ से बाहर हैं, अर्थ और अनर्थ

इन दिनों कुछ लोग मुझे देश की आर्थिक स्थिति गड़बड़ाने, नोटबंदी से नुकसान होने, लोगों की नौकरियां छीने जाने, महंगाई बढ़ने, रोजमर्रा की वस्तुओं के रेट जीएसटी की वजह से ज्यादा होने और भी न जाने कितने तरह के मुद्दों पर बहस करते दिख जाते हैं, लेकिन ये सब मेरी समझ से परे होता है। वहीं इसके ठीक उलट कुछ लोग ऐसे भी मिल जाते हैं, जो यह सब कुछ देशहित में बताते हुए तरह-तरह के तर्क गढ़ते हैं। ये लोग कहते हैं कि हमेशा महंगाई का रोना रोने वालों से देश की तरक्की देखी नहीं जा रही। आखिर यह पैसा देश के काम ही आना है। मेरे दिमाग में नहीं सूझ रहा कि कौन सही कह रहा है और कौन गलत।

उधर, मैं जीडीपी बढ़ने या घटने के गणित में उलझा हुआ हूं। कोई कहता है पहले इसमें गिरावट थी, आज बढ़ रही है और यह बात विरोधियों को नहीं पच रही है। कुछ लोग कहते हैं कि देश हित में कड़े फैसले होंगे तो यह सब तो फिलहाल झेलना ही पड़ेगा। ज्यादा टैक्स मतलब ज्यादा विकास और सपने पूरे होने की गारंटी। मैं आज तक इस अर्थ और अनर्थ को नहीं समझ सका। अब मैने फैसला कर लिया है कि मैं न तो जीडीपी को समझने की कोशिश करूंगा और न ही कभी आर्थिक मुद्दों पर होने वाली बहस सुनूंगा।

केवल, अपने घर के महीनेभर के राशन के बिल पर ही फोकस करुंगा। सारा अंदाजा इसी से लगाऊंगा। जब से इस बिल पर ध्यान लगाया तो सांसें तेज होने लगीं। बीपी बढ़ने लगा और लगता है कि अब तो लंबा बीमार होकर रहूंगा। यह बिल हर माह बढ़ता ही दिखता है। जबकि सामान की सूची पहले वाली ही होती है और क्वांटिटी भी उतनी ही। राशन का बिल बीमार न कर दे, इसलिए अपनी लिस्ट से गैरजरूरी सामान बाहर कर दिया है। यह वह सामान है, जो खाने में स्वाद बढ़ाने के लिए इस्तेमाल होता है।

हमने तय किया है कि इस जमाने में फीका खाकर ही जिया जाए। फास्टफूड के जमाने में फास्टफूड के सभी आइटम को फिलहाल बाय-बाय किया है।इससे बचने वाली रकम को पेट्रोल वाली मद में ट्रांसफर कर दिया है, क्योंकि पेट्रोल के बिना काम नहीं चलेगा। पेट्रोल कम खर्च हो, इसलिए फालतू घू्मना बंद किया है और पैदल चलकर सेहत ठीक करने में जुटा हूं। फीका खाऊंगा, तो न ब्लड प्रेशर बढ़ेगा और न ही कोलेस्ट्राल और डायबिटीज का लेवल। पढ़े- क्या हम सपने भी नहीं देख सकते

पेट्रोल से बात याद आई, एक जगह कुछ लोगों को इस पर बात करते सुन रहा था। एक भाई साहब, कह रहे थे कि पेट्रोल के दाम लगातार बढ़ रहे हैं। रोजाना कुछ बढ़ ही जाता है। धीरे-धीरे बढ़कर यह 80 पार हो जाएगा। क्या करें, इसके बिना काम भी नहीं चलता। लगता है, बिजली वाला कुछ इंतजाम करना पड़ेगा।

सामने बैठे एक और सज्जन तपाक से बोले कि भाई, पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ने की बात तुम्हारी समझ में नहीं आएगी। यह तो सरकार बढ़िया ही कर रही है। इसके कई फायदे हैं, एक तो लोग पेट्रोल, डीजल कम फूंकेंगे और शहर में पर्यावरण स्वच्छ रहेगा। ज्यादा तेल खर्च करोगे तो प्रदूषण भी तो ज्यादा बढ़ेगा भाई।

दूसरा फायदा बताओ भाई, जल्दी बताओ- एक सज्जन की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। जवाब मिला, भाई प्रदूषण नहीं बढ़ेगा तो आपकी सेहत ठीक रहेगी। सांस की बीमारी नहीं होगी। दवाइयों, डॉक्टर की फीस, तरह-तरह के टेस्ट का बिल भी नहीं देना पड़ेगा। यह सब तो पेट्रोल की बढ़ी हुई कीमत से ज्यादा ही होता है जनाब।

पेट्रोल बचाने का मतलब है पैसा बचाना। पेट्रोल डॉलर की तरह व्यवहार करता है भाई। मान लो कि घर से बाजार जाने में तुम 100 ग्राम पेट्रोल फूंकते हो। अगर बाजार पैदल जाओगे तो साढ़े सात रुपये बच गए न। अगर यही पेट्रोल 50 या 60 रुपये प्रति लीटर होता तो तुम्हारी बचत भी तो घट जाती। तुम्हें कौन सा वाला रेट पसंद है, जो बचत ज्यादा कराए या कम बचत वाला। सवाल करने वाले सज्जन समझ गए कि अब ज्यादा बात करना सही नहीं है। लगता है भाई ने काफी स्टडी किया है पेट्रोल – डीजल को। उधर, मैं फिर कन्फ्यूज हो गया कि पेट्रोल के दाम बढ़ना सही है या कम होना। मैंने तो पहले ही ऐसी चर्चा करने वालों के पास नहीं फटकने का फैसला किया था। चर्चा कुछ और आगे बढ़ती, इससे पहले ही वहां से खिसक लिया।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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