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मास्टर जी की छड़ी

पांचवी क्लास की पिटाई अब तक नहीं भूला। कभी राइटिंग खराब होने के नाम पर तो कभी होमवर्क पूरा नहीं करने के नाम पर, अक्सर पिटता। मेरे स्कूल में शहतूत का पेड़ था। उसके शहतूत तो हमने कभी नहीं खाए पर उसकी पतली डंडियों से मार खूब खाई। मैंने और एक दोस्त ने पिटने से बचने का तोड़ निकाल लिया था। मैथ के सर की क्लास में एंट्री होते ही सबसे पहले मैं याद दिलाता, सर चॉक लेकर आता हूं। उनके आने से पहले चॉक गायब करने का काम भी मेरा और दोस्त का था। जिस दिन होमवर्क कंपलीट होता और पिटने की कोई वजह नहीं होती, हम न तो चॉक गायब करते और न ही क्लास से बाहर की दौड़ लगाते।

स्कूल में हर क्लास के लिए चॉक दफ्तर में ही मिलती थी। जब अंदाजा लगा लेते कि पूरी क्लास चेक हो गई होगी, तभी चॉक लेकर क्लास में घुसते। कुछ दिन तक तो हमारा यह नाटक चल गया, लेकिन जल्दी ही पकड़ में आ गए। बस फिर क्या था, शहतूत की पतली डंडी हमारी पीट से लेकर पैरों तक जमकर चली। उस दिन के बाद से चॉक लाने की जिम्मेदारी किसी ओर की थी।

आज जब मैं एक स्कूल में गया तो वहां किसी शिक्षक के हाथ में कोई छड़ या शहतूत की पतली डंडी दिखाई नहीं दी। पहले तो बाकायदा कुछ छात्रों की ड्यूटी लगाई जाती थी कि वो डंडियों का इंतजाम करेंगे। कुछ मेहनती छात्रों ने तो एक-एक हफ्ते के लिए डंडियों के बंडल बना रखे थे। ये वो छात्र थे, जिनके पिटने की बारी कम ही आती थी या बिल्कुल भी नहीं। कुल मिलाकर ये क्लास में होशियार माने जाने वाले छात्र थे। इनमें हमारी गिनती नहीं होती थी। हमें तो कभी लगता था कि ये डंडियां हमारे लिए ही जुटाई जाती हैं।

एक बात तो थी हमारे उन शिक्षकों में, उनके पीटने का तरीका भी बड़ा तकनीकी थी। दर्द तो होता था, पर निशान केवल स्कूल समय तक ही दिखते थे। वैसे उस समय परिवारवालों को भी ज्यादा आपत्ति नहीं होती थी। कई अभिभावक स्कूल में बच्चों के पिटने की शिकायत करने नहीं जाते थे। उनका तो साफ कहना था कि पढ़ाई नहीं करोगे तो पिटोगे ही। स्कूल में पढ़ाई करने जाते हो, न कि पूजा कराने।

स्कूल में कोने में पड़ी पतली सी छड़ी को देखकर अपना समय याद आ गया। लेकिन दावे के साथ कह सकता हूं, अगर वो शहतूत का पेड़ नहीं होता तो उसकी पतली-पतली डंडियां भी नहीं होती। जब उसकी डंडियां नहीं होती तो मैं शायद कम ही पिटता। अगर मैं कम पिटता तो शायद,  आज जो भी कुछ हूं, वैसा भी नहीं होता। खैर कोई बात नहीं।

मैंने उस छड़ी की ओर देखा औऱ मुस्कराने लगा। मेरी मुस्कान उस छड़़ी को बुरी लग गई। मुझे लगा कि वो मेरी ओर घूर कर देख रही है। मानो, मुझे कह रही है, मैंने तुझे इंसान बनाया और तू मेरा मजाक उड़ा रहा है। अगर मेरा खौफ नहीं होता तो क्या तू होमवर्क पूरा करके लाता। क्या तू पढ़ाई में ध्यान लगाता। क्या तू शिक्षक के बताए पाठ को समझने की कोशिश करता। क्या उन शिक्षक और तेरे बीच सम्मानजनक रिश्ता कायम हो पाता।

छड़ी ने कहा- तू मुझे बता, मेरे साथ क्लास में आने वाले शिक्षक तुम्हारा भला चाहते थे या नहीं। जितनी बार तुम्हारी पिटाई हुई, किसकी गलती थी, शिक्षक की या तुम्हारी या फिर मेरी। मै मानती हूं कि आज मेरी कोई जगह स्कूलों में नहीं है। क्योंकि जमाना बदल रहा है और बच्चों को पढ़ाने की तमाम तकनीक सामने आ गई हैं। शिक्षक भी तकनीकी हो गए हैं और छात्रों का तो कहना क्या। अधिकतर इतने तकनीकी हैं कि सोशल मीडिया से बाहर आने को राजी नहीं हैं।

मेरा समय कुछ और था। मेरा मकसद खौफ पैदा करना नहीं था, मेरा उद्देश्य था भला करना। तुम मुझे बता दो, क्या तुम्हारे किसी दोस्त को मेरी मार से इतनी चोट लगी कि उसने अपना ही अनर्थ कर लिया है। आज तुम जो कुछ मीडिया के जरिये पढ़ते या सुनते या फिर देखते हो, मुझे बताने की जरूरत नहीं है।

छड़ी बोली, मैं यह मानती हूं कि तुम अपनी जगह सच हो। बच्चों को छड़ी दिखाना भी गलत बात है। बच्चों पर हिंसा नहीं करनी चाहिए। पहले भी जो कुछ होता था, वह भी गलत था, भले ही उद्देश्य छात्रों का भला करना रहा हो। मैं भी अक्सर यही सोचती हूं कि पहले के शिक्षकों ने छोटे बच्चों को पीटने में मेरा इस्तेमाल किया। उन्होंने मुझे भी पाप का भागी बना दिया। लेकिन जब मैं यह सोचती हूं कि मेरा उपयोग करके पीटे गए बच्चे कामयाब हो गए या फिर सही तरीके से जिंदगी गुजार रहे हैं तो मैं गर्व से भर जाती हूं। मैं बहुत असमंजस में हूं । पूरी तरह यह फैसला नहीं कर पा रही हूं कि मैं गलत थी या सही। यह बात भी सही है कि जिसने कुछ करना हो तो उनको न तो छड़ी दिखाने की जरूरत होती है और न ही उनको पीटने की।

मेरे यहां कोने में पड़े होने की वजह साफ है कि स्कूल मुझे इस्तेमाल नहीं करना चाहता। वो मेरे बिना बच्चों का भविष्य बनाना चाहता है। जमाना बदल रहा है कि बच्चों को डराकर नियंत्रित नहीं किया जा सकता। उनको डराना नहीं चाहिए। तकनीकी अपना काम कर रही है।यह तकनीकी है, बच्चों में एजुकेशन के लिए इंटरेस्ट पैदा करने की। अब तो बच्चों को कुछ अभिनव सिखाने के लिए तरह-तरह के गेम, एक्टीविटी का इस्तेमाल किया जा रहा है। उनको किताबों से बाहर की दुनिया दिखाने के लिए टूर कराए जा रहे हैं।

छड़ी बोली, नये दौर में हम बच्चों के इंटेलीजेंस पर काम कर रहे हैं। उनको सबसे अलग अभिनव पहल के लिए तैयार कर रहे हैं। किताबों में लिखी बातों का वास्तविकता से परिचय करा रहे हैं। उन पर प्रतिस्पर्धा की रफ्तार के साथ दौड़ने का दबाव बना रहे हैं। उन पर सबसे आगे बढ़ने का प्रेशर है। उनके दिल और दिमाग में केवल एक बात फिट करने की कोशिश की जा रही है, कि तुम्हें सबसे बेहतर परफार्म करना है। पूरा रिजल्ट परसेंटेज पर टिक गया। मेरे जमाने में इतना सब कुछ नहीं था। वैसे भी बच्चों को किसी परफार्म के लिए कठपुतली बनाने का काम मेरे से नहीं हो सकता। इस समय मेरी जरूरत इसलिए भी नहीं है, क्योंकि बच्चों पर मुझसे ज्यादा काम करने वाली तकनीक ईजाद हो चुकी हैं।

मैं खुद ही स्वीकार करती हूं कि मेरा इस्तेमाल बच्चों पर न किया जाए। क्योंकि मैं बहुत कष्ट देती हूं। मेरा इस्तेमाल करने वालों से बच्चे स्कूल ही नहीं बल्कि बाजार या अपने घर के आसपास भी बहुत घबराते थे। सबसे आगे बढ़ने की होड़ में किताबों को सामने रखकर ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर करने वालों पर सोते जागते पढ़ाई का इससे ज्यादा दबाव बनाने का काम मुझसे नहीं हो सकता। मैं तो यहां कोने में पड़ी रहना ज्यादा पसंद कर रही हूं। क्योंकि यहां से मुझे मैदान में खेलते, एक दूसरे के साथ हंसते, बातें करते, दौड़ते, कूदते बच्चे देखकर अपना समय याद आ जाता है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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