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इनको भी जीने लायक बना दो…

मैं आज 17 मई, 2018 दोपहर अपने दोस्त के साथ देहरादून ट्रांसपोर्टनगर से आईएसबीटी होते हुए रिस्पना पुल की ओर जा रहा था। आईएसबीटी पर पानी की बोतल खरीदने के लिए दोस्त ने कार रोकी। तभी उनके सामने करीब दस साल का बच्चा कुछ मांगने के लिए हाथ फैलाने लगा। मेरे दोस्त ने उससे कहा, पैसे तो नहीं दूंगा। कुछ खाना है तो बताओ। बच्चा कहने लगा, परांठा खाना है, भूख लगी है। दोस्त उसको लेकर पास ही एक ढाबे पर पहुंचा। दोस्त ने पैसे देकर ढाबे वाले से उसको खाना खिलाने को कहा। ढाबे में खाने की टेबल पर बैठकर बच्चा थाली का इंतजार कर रहा था।

धूल से सने बेतरतीब बालों वाले पतले दुबले बच्चे ने फटे मैले कुचेले कपड़े पहने थे। लग रहा था कि कई दिन से नहाया नहीं होगा। पैरों में चप्पल नहीं थी। भरी दुपहरी तपती सड़क पर कैसे चलता होगा, सोचकर भी कष्ट हो रहा था। मेज पर खाना परोसे जाने पर उसके चेहरे पर खुशी साफ दिख रही थी। लग रहा था कि वह सुबह से खाने की ही तलाश कर रहा था।

मैंने दोस्त से कहा, तुमने बड़ा काम किया है। दोस्त ने जो जवाब दिया, वह काफी सोचनीय है। उसका कहना था कि किसी बच्चे को एक दिन खाना खिलाने से क्या होगा। यह कोई स्थाई इंतजाम नहीं है। आज शाम को इसको फिर से भूख लगेगी और फिर तलाशेगा किसी एेसे शख्स को जो उसको कुछ खिला दे। इसे क्या, इसके जैसे सभी बच्चों को शिक्षित बनाया जाए। इनको इस लायक बनाया जाए कि अपने दो टाइम का खाना और बुनियादी आवश्यकताओं को खुद ही जुटा सकें। इनको कौशल विकास से जोड़ा जाना चाहिए। इनमें स्किल डेवलप करने के उपाय किए जाएं।

दोस्त बोलता जा रहा था और मैं उसको सुनता। वह कह रहा था कि कौन जानता है, ये बच्चे कहां से आते हैं सड़कों पर खाना या पैसे मांगने के लिए। इनके माता-पिता कौन हैं। इनका घर कहां है। ये इसी शहर, जिले या प्रदेश के हैं या अन्य जगहों से आए या लाए गए हैं। मैंने कोई बड़ा काम नहीं किया। बड़ा काम तो इनके लिए पढ़ाई, रहने, खाने पीने की व्यवस्था करके इनको समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का है। बहुत कम लोग होंगे, जो यह काम कर रहे होंगे। बच्चों के संरक्षण के लिए तमाम सामाजिक संस्थाएं, सरकारी विभाग, आयोग और अन्य उपक्रम हैं, लेकिन धरातल पर कितना काम हो रहा है, शहरों की सड़कों पर घूमते ये बच्चे बता देंगे।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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