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बकैंण या डैकणः कई बीमारियों के निवारण में उपयोगी

यह उत्तराखण्ड के गढवाल में डैकण तथा कुमाऊं में बकैन के नाम से जाना जाता है। बकैन उत्तराखण्ड में निम्न ऊॅचाई से मध्य ऊॅचाई तक के क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। सम्पूर्ण प्रदेश में सडक, रास्ते तथा खेत खलियानों के अगल-बगल देखा जा सकता है। उत्तराखण्ड में बकैन का कोई भी व्यवसायिक उपयोग नहीं है परन्तु पारम्परिक रूप से

डॉ. राजेंद्र डोभाल, महानिदेशक -UCOST उत्तराखण्ड.

इसको कुछ बीमारियों के निवारण तथा इसकी पत्तियों को चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है। प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में भण्डारित अनाजों में इसकी पत्तियों को पारम्परिक कीटनाशक के रूप में मिलाया जाता है। विश्व भर में यदि नीम के गुणों से किसी की तुलना की जाती है तो यह बकैन ही है। आज विश्व बाजार में प्राकृतिक कीटनाशक के रूप में नीम आधारित असंख्य उत्पाद मौजूद है जिनसे करोडों का कारोबार संचालित होता है। उत्तराखण्ड में तो नीम तराई क्षेत्रों के सिवाय पहाड़ो में नहीं जाता है, पहाडों में तो केवल बकैन ही पाया जाता है और नीम तथा बकैन की औषधीय एवं प्राकृतिक कीटनाशक के रूप में लगभग एक जैसी गुणवत्ता है। 
आज उत्तराखण्ड प्रदेश में गढवाल तथा कुमाऊं क्षेत्र में सब्जी तथा फलों का उत्पादन व्यवसायिक रूप से किया जाता है तथा कृषि रसायनों का अत्यधिक प्रयोग किया जाता है जो पर्यावरण के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव डालते है। उत्तराखण्ड में तो कई स्थानों पर स्थानीय काश्तकारों द्वारा नेपालियों को किराये पर खेत सब्जी उगाने के लिए दिये जाते है, जो न तो खेत का रखरखाव करते है और न ही कृषि रसायनों के प्रयोग के बारे में जानकारी रखते है जिसके परिणामस्वरूप अन्धाधुन्ध रसायनों का प्रयोग किया जाता है।

इस संदर्भ में प्राकृतिक कीटनाशक बकैन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है क्योंकि कुछ पौधों में प्राकृतिक रूप से ऐसे रसायनिक घटक पाये जाते है जिनमें कीटनाशक तथा औषधीय गुण भी होते है जो पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी नहीं होते है।

धालीवाल 1996 के एक अध्ययन के अनुसार सम्पूर्ण विश्व में लगभग 3,08,000 पौधों की प्रजातियां पायी जाती है जिनमे से 189 पादप कुल तथा 2400 पादप प्रजातियों में प्राकृतिक रूप से कीटनाशक, फॅफूदनाशक व कई अन्य गुण पाये जाते है। सर्वाधिक कीटनाशक गुणों वाले पौधे Meliaceae में पाये जाते है जिसमें नीम तथा बकैन भी सम्मिलित है। कुछ महत्वपूर्ण पादप कुलों में पाये जाने वाले कीटनाशक पौधों की अगर बात की जाय तो Asteraceae–70, Apocyanaceae-39, Euphrbiaceae-63, Fabaceae-57, Leguminosceae-60, Myrtaceae-72, Rananculaceae-55, Rutaceae-39, Rosaceae-27, Meliacae-500 से अधिक पौधों में कीटनाशक गुण पाये जाते है। कीटनाशक गुणों का मतलब केवल तुरंत मार कर समाप्त कर देना ही नहीं अपितु पौधों में मौजूद रासायनिक घटकों द्वारा कीटों की खाने की क्षमता को रोकना, अण्डे देने की क्षमता को रोकना तथा फसलों से दूर भगाने से साथ-साथ कीटों की अपरिपक्व अवस्थाओं को भी नष्ट व कम कर देना भी है।

जहां तक बकैन की बात की जाय तो इसका वैज्ञानिक नाम Melia Azedarach है तथा Meliaceae कुल से संबंध रखता है। मुख्य रूप से बकैन का उद्भव दक्षिण एशिया से माना जाता है परन्तु बाद में अमेरिकियों द्वारा इसे मैक्सिको, अर्जेन्टीना, जापान, इण्डोनेशिया, उत्तरी आस्ट्रेलिया, अफ्रिका तथा यूरोप तक फैला दिया गया। इसके परिपक्व फल में बेहतर मात्रा में तेल पाया जाता है जो औषधीय एवं कीटनाशक गुणों से भरपूर होता है इसके तेल में Myristic acid, palmitic Acid, Lenoleic Acid, Oleic Acid, Stearic Acid रसायनिक अव्यव पाये जाते है तथा इसके फल में Azedirachtin, Tetanoterpenoids मुख्य रूप से पाये जाते है। नीम की तरह ही बकैन की पत्ती, छाल, फल तथा तेल को प्राकृतिक कीटनाशक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है तथा इसके खल को खाद के रूप में भूमि शोधन में प्रयोग किया जा सकता है।

कीटनाशक गुणों के साथ-साथ आयुर्वेदिक तथा यूनानी औषधियों के निर्माण में भी एक अव्यव के रूप में प्रयुक्त होता है क्योंकि इसमें एण्टीऑक्सीडेंट, एनालजैसिक, एण्टीहाईपरटेंसिब, एण्टीडाइरल, एण्टीडाइबैटिक गुण भी पाये जाते है। इसकी छाल अतिसार, बुखार, दर्द, उल्टी, पाइल्स, अल्सर तथा तना अस्थमा रोग निवारण में प्रयुक्त होता है। इसकी जड़ तथा जड़ की छाल स्वाद में तो कडवी होती है परन्तु यह मलेरिया तथा अतिसार निवारण में सक्षम होती है। कई अध्ययनों में यह भी बताया गया कि इसके सूखे फलों की छाल मधुमेह निवारण के लिए नीम की तरह ही उपयुक्त पायी जाती है तथा कई अध्ययनों में इसकों पेट को साफ करने वाले टानिक में एक अव्यव के रूप में मिलाया जाना भी बताया गया है तथा इसका तेल चर्म रोग निवारण में भी प्रयुक्त होता है।

यदि उत्तराखण्ड के पहाडी क्षेत्रों में बकैन को नीम की तरह ही बंजर व जंगलों में उत्पादित कर इसमें मौजूद रसायनिक घटकों का विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन कर इससे उत्पादित उत्पादों को नीम की तरह ही व्यवसायिक रूप से तैयार किया जाय तो यह आर्थिकी, रोजगार तथा प्राकृतिक कीटनाशक और औषधी के रूप में प्रयोग किया जा सकता है जिससे पर्यावरण तथा मानव स्वास्थ्य दोनों को ही लाभ होगा

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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