Blog Live

आपका पलायन, हमारा पलायन…

आप पहाड़ के गांवो को छोड़कर देहरादून में आकर सियासत करो, तो यह तरक्की है। जब मैं अपनी जिंदगी संवारने के लिए घरबार छोड़ने को मजबूर हो जाऊं, तो यह पहाड़ से पलायन है। यह सियासत का नहीं जनाब, तरक्की के लिए मजबूरी का पलायन है। पलायन पर चिंता जताने वाले और उनके परिवार देहरादून से लेकर देश के बड़े शहरों में बस गए, क्योंकि वो भी जानते हैं कि पहाड़ के दूरस्थ सीमांत गांवों में रहकर न तो अपना जीवन संवार पाएंगे और न ही प्रतिस्पर्धा के बढ़ते माहौल में बच्चों को आगे बढ़ा सकेंगे। अगर पहाड़ के गांव खाली होने का इतना ही डर सता रहा है तो खुद और अपने लोगों को वहां जाने के लिए क्यों नहीं प्रेरित करते। पहाड़ पर सुविधाओं और संसाधनों का नेटवर्क क्यों नहीं पहुंचाते। क्या सभी बड़े स्कूल, अस्पताल और सरकारी संस्थान देहरादून, हल्द्वानी और हरिद्वार के लिए ही बने हैं।

पहले पहाड़ को उसकी पीड़ा से मुक्ति दिलाओ और फिर लगाओ पलायन रोकने का नारा। पलायन रोकने के लिए खुद और अपनी पीढ़ियों को पहाड़ का रास्ता दिखाना होगा। राजधानी के फाइवस्टार नुमा दफ्तरों में पहाड़ की पीड़ा का अंदाजा कैसे लगाया जा सकता है। किसी भी दुख, दर्द और तकलीफ को महसूस करने के लिए उसमें जीना होता है या उसके नजदीक जाना होता है। सरकार बता दे, जिन अफसरों के साथ उसने पलायन के मुद्दे को साझा किया है, क्या वो कभी उस सीमांत गांव में कुछ दिन बिताकर आए हैं, जो सड़क से कम से कम 20 किलोमीटर पैदल दूरी पर हो। जहां से स्कूल दो गदेरों को पार करके जाना होता है औऱ स्कूल में भी शिक्षकों की कमी हो। रात और दिन आपदा के साये में कटते हों और रोजगार के लिए संसाधन ही न हों।

रोगियों को कुर्सियों पर बैठाकर कंधों के सहारे सड़क तक लाने की मजबूरी हो और दूरस्थ सरकारी डिस्पेंसरी में न तो डॉक्टर हो और न ही फार्मासिस्ट। प्रसव पीड़ा से जूझती महिला को अस्पताल तक जाने के लिए मीलों पैदल चलने की मजबूरी हो। यह एक नहीं बल्कि पहा़ड़ के कई गांवों की पीड़ा है। पहाड़़ से पलायन रोकने का नारा लगाने वाले किसी शख्स में इतना साहस है कि वो परिवार के साथ ऐसे गांव में जाकर एक माह ही बिता लेगा। जो ऐसा कर सकता है तो उसी को पलायन को मुद्दा बनाने का मौका मिलना चाहिए।

पलायन को ठीक गैरसैंण की तरह मुद्दा बनाने वाली सियासत और उसके लोगों ने कभी सीमांत गांवों की ओर पैदल ट्रैक करने का साहस किया है।यहां तो शहर के एक कोने से दूसरे कोने तक जाने के लिए भी लंबी फ्लीट और हूटर का शोर मचाते पायलट वाहन की जरूरत होती है। जिन लोगों पर पलायन का तमगा जड़ा जा रहा है, वो तो अपने गांव से सड़क तक आने के लिए मीलों पैदल चलते हैं। घर तक राशन पहुंचाने के लिए उनको कंधे पर बड़ा बोझ लेकर पूरे दिन पैदल सफर तय करना होता है। पहाड़ के ये लोग कभी पानी नहीं तो कभी बिजली नहीं, जैसी तमाम दिक्कतों को झेलते हैं। दून के आलीशान भवनों में रहने वाले बिजली के एक दिन के शटडाउन पर बेचैन हो जाते हैं और फिर बात करते हैं कि पहाड़ से पलायन न हो।

पहाड़ में सुविधाएं पहुंचेंगी तो पलायन रुकेगा, यह आज से नहीं यूपी के जमाने से सुना जा रहा है। उत्तराखंड राज्य निर्माण के लिए बड़े आंदोलन की वजह भी राज्य के पर्वतीय जिलों का विकास कराना था। 17 साल हो गए और दोनों बड़े दल सरकार चला चुके हैं, लेकिन आज भी पहाड़ और उसके लोग संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन जैसे पब्लिक से जुड़े इश्यु पहले की तरह आज भी मीडिया की सुर्खियां बनते रहे हैं। क्या वजह है कि आज एक बार फिर पलायन बड़ा मुद्दा बन गया, जो इस पर आयोग बनाना जरूरी हो गया।

यूपी से उत्तराखंड के हिस्से में आए पहाड़ को लेकर नौकरशाही का रवैया आज भी नहीं बदला और न ही सरकार की प्राथमिकता में शामिल मुद्दों को गंभीरता से लिया गया। अफसरों की संवेदनशीलता का एक नमूना पिछले दिनों सामने आया था, राज्य के टॉप ब्यूरोक्रेट्स पलायन रोकने के लिए खनन पर जोर दे रहे थे और एक अफसर ने तो पलायन की वजह समाजसेवा बता डाली थी, वो भी किसी सर्वे का हवाला देते हुए। उच्चस्तरीय अधिकारी, जिन पर योजनाएं बनाने का जिम्मा है, वो इस तरह की हास्यापद वजह और समाधान बताने की सोच भी कैसे सकते हैं।

यह नारा मैं बचपन से सुनता आ रहा हूं कि पहाड़ में पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं और अब जब वर्षों बाद भी हालात नहीं सुधरें तो यह कहने में जरा भी हिचक नहीं होगी कि पहाड़ से पलायन की अपार संभावनाएं हैं। सवाल उठता है कि पहाड़ के गांवों में तरक्की की, वो कौन सी राहें खोजी जाएं, जो जिंदगी संवार दे और पलायन की पीड़ा से भी मुक्ति दिला दे। पर्यटन के साथ पहाड़ को एजुकेशन, हेल्थ और पब्लिक ट्रांसपोर्ट हब के रूप में विकसित करना होगा। जब एजुकेशन, हेल्थ, टूरिज्म, ट्रांसपोर्ट, एग्रीकलचर से जुड़े व्यवसायियों और प्रोफेशनल्स की टीम इन्वेस्ट करने के लिए पहाड़ चढ़ेंगी तो निश्चित तौर पर मानिए, पहाड़ में सुविधाएं और संसाधन बढ़ेंगे और पलायन की बात अतीत हो जाएगी।

 

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button