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विश्व की 7000 मातृभाषाएं, बोलचाल में कुछ सौ हीं

अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 21 अप्रैल पर विशेष

  • जेपी मैठाणी

अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की शुरुआत यूनेस्को की सामान्य सभा ने नवंबर 1999 में एक प्रस्ताव को पारित करके की थी। इसके तहत फरवरी 2000 से बहुभाषी भाषा बोली एवं बहुभाषियता के साथ-साथ इस दिन को विधिवत रूप से मनाया जाने लगा। भाषाएं अपने महत्वपूर्ण तत्वों, पहचान, संचार, सामाजिक संवेदना, शिक्षा एवं विकास के लिए सदैव समाज और मानव समूह के बीच अपना अहम स्थान रखती आई है। यह सच है कि वैश्वीकरण के दौर में कई भाषा बोली खतरे में हैं और कुछ तो अस्तित्व में ही नहीं हैं। जब भाषाएं बोलचाल से दूर होकर धुंधलाने लगती हैं, तब दुनिया में अहम समझे जाने वाली सांस्कृतिक विरासत, संभावनाएं, रीति रिवाज, यादें जिनका खुद में अभिनव योगदान रहा है, वे धीरे-धीरे खोने लगती हैं। उत्तराखंड सरकार भी गढ़वाली और कुमाऊंनी बोली को समृद्ध करने का प्रयास करती रही है।

विश्व में मौजूद 7000 भाषाओं में से लगभग 50 फीसदी खत्म होने की ओऱ हैं। बाकी बची भाषाओं का 96 फीसदी सिर्फ दुनिया की चार प्रतिशत आबादी ही प्रयोग करती है। जिसका लब्बोलुआब यह है कि भाषाएं अपने अस्तित्व के लिए छटपटा रही हैं और इनका उपयोग करने वाले लोग कभी कभी अपने आप को मातृभाषा के प्रयोग की वजह से पिछड़ेपन का महसूस करने लगते हैं। दूसरी और पूरे विश्व में अपनी-अपनी मातृ भाषाओं को बचाए रखने के प्रयास जारी हैं।केवल कुछ सौ भाषाएं ही एेसी हैं, जिनको ईमानदारी के साथ शिक्षा व्यवस्था और आम बोलचाल में प्रयोग किया जाता है।

यूनेस्को के अनुसार सौ से कम भाषाएं ही डिजीटल की दुनिया में अपना स्थान बना पाई हैं। वर्ष 2006 में यूनेस्को ने भाषाओं के संरक्षण के लिए एक टास्क फोर्स एवं मूल्यांकन समिति का गठन किया, जिसका व्यापक प्रसार सभी वर्गों में किए जाने का प्रयास हुआ।  इसी उद्देश्य से फरवरी 2008 में आईपीएलएम संगठन की स्थापना की गई।

16 मई 2007 में सामान्यसभा ने यह घोषित किया कि वर्ष 2008 को अंतर्राष्ट्रीय भाषा दिवस के रूप में मनाया जाएगा, जो यूनेस्को ने 20 अक्तूबर 2005 में पारित प्रस्ताव का अनुपालन था। इन प्रयासों से दुनियाभर में मातृभाषाओं के प्रति प्रेम, उसको प्रयोग में लाने और भाषायी विविधता को बचाने रखने का दौर शुरू हुआ है। वर्तमान मे ंयह समझा जा रहा है कि विकास की प्रक्रियाओं को समझने के लिए मातृभाषाओं का ज्ञान जरूरी है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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