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मेरा पड़ोसी आम का पेड़

मेरे घर के पीछे आम का पेड़ है। न तो उसने कभी मुझसे बात की और न ही मैंने उससे। क्योंकि हम इंसान तो यही जानते हैं कि पेड़ बोलते नहीं हैं। मैंने भी कभी उसको बोलते हुए नहीं सुना।

मैं पहली से आठवी कक्षा तक जिन स्कूलों में जाता रहा, उनका रास्ता इस पेड़ के सामने से ही था। वैसे वो कोई रास्ता नहीं था, खेतों की मेढ़ थीं। मेढ़ तो जानते ही होंगे, ये खेतों की सीमाओं को बताती हैं। यह मेरा खेत है और यह उसका। ठीक वैसे ही जैसे अलग-अलग घरों की बाउंड्रीवाल। बरसात में भी इन खेतों की मेढ़ों पर चलना हमें अच्छी तरह से आता था। हालांकि एक दूसरा रास्ता भी था,पर उससे स्कूल की दूरी दोगुनी हो जाती थी और फिर हरे भरे खेतों के बीच से होकर गुजरने का आनंद भी नहीं मिलता था।

मैं अनुमान लगा रहा हूं कि स्कूल जाते बच्चों को देखकर यह पेड़ बहुत खुश होता होगा। वैसे भी उस दौर में इसे शान से खड़े होकर दूर तक नजर आती हरियाली और यहां वहां दौड़ते, घूमते बच्चों को देखने की आदत सी हो गई थी। तब यह खुली हवा में सांस लेता था और इंसानों के लिए भी मन ही मन यही बोलता होगा कि जीभर कर जियो, जब तक मैं हूं।

आम का पेड़ आज भी है और हम इंसान भी, पर हालात इतने बदल चुके हैं कि जिंदगी को खुलकर जीने के लिए जमीं नहीं मिल रही। जमीन को तो हम सबने मिलकर इतना ज्यादा ढक दिया कि सांस लेने के लिए हवा को पूरी ताकत के साथ खींचना पड़ रहा है।

हां, तो मैं बात कर रहा था बचपन की। स्कूल की गर्मियों की छुट्टियों वाली दोपहर मुझे घर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी। वो इसलिए कि एक बार घर से निकलकर मैं कई घंटे तक घर की तरफ देखता नहीं था। कभी घर के पास स्कूल में खड़े आम और जामुन के पेड़ के नीचे पूरी दोपहर बिताता या फिर दूर तक दिखते खेतों में दोस्तों के साथ घूमता रहता। घर से तीन किमी. पैदल नापकर सुसवा नदी के किनारे कंटीली झाड़ियों में बैर तलाशते। कुछ लोगों ने हमारा नाम भटकी हुई आत्मा रख दिया था। यह मौज छुट्टियों में ही होती।

शाम को घर पहुंचता तो मां से साफ झूठ बोलता कि मैं तो यहीं आम के पेड़ नीचे खेल रहा था। मैं तो स्कूल के मैदान में था, दोस्तों के साथ। मैं तो दोस्त के घर पर था, जाकर उससे पूछ लो। मां तो मां होती है, झूठ पकड़ा जाता और फिर छुट्टियों में घर से बाहर निकलना बंद हो गया। तीन कमरों वाले हमारे घर को मां भीतर से बंद करके चाबी छिपा देतीं और फिर इस तरह मेरा घर से बाहर सड़कों पर भटकना बंद हो गया।

मैं आज सोचता हूं कि तपती दोपहरी में, मैं बाहर भटकने न जाऊं, मुझे कोई तकलीफ न हो, मेरा भविष्य उज्ज्वल हो, इसलिए मां, स्वयं को भी कमरे में बंद कर लेती थीं। शाम की चाय के बाद ही कमरा खुलता और मैं बाहर की ओर ऐसे दौड़ लगाता कि बचपन को जीने के लिए अभी कुछ अधूरा सा है, उसे पूरा कर लो। दौड़ लगाता हुआ सीधा घर के पास स्कूल के मैदान में पहुंचता।

मोहल्ले ही नहीं बाजार के सारे बच्चे इस मैदान की हरी घास पर लोट लगाते थे। हम सभी दोस्त, जब मन किय़ा पूरी ताकत के साथ मैदान में दौड़ लगाते, जब मन किया हरी घास पर लेट जाते। वहां भी जी नहीं भरता तो बाजार से जुड़ी मोहल्लों की गलियों को नाप लेते। कभी चोर सिपाही खेलने के बहाने तो कभी कौन आगे निकलता है, के जरिये अपनी ताकत दिखाने के बहाने। हमें यह चिंता भी नहीं थी कि मैदान में लेटकर गंदे किए कपड़ों को देखकर कौन क्य़ा कहेगा।

लिखते लिखते मैं फिर भटक गया। भटकने की आदत कभी नहीं जाती। मैं बचपन में इधर-उधर घूमता, घर लौटता तो मेरी मां कहती, आ गई घर की याद। कहां से भटक कर आ रहे हो। मैं घूमने का शौकिन रहा हूं, पर वक्त के साथ-साथ घूमने का मौका ही नहीं मिला। अब सोचता हूं कि खूब घूमूं, देखूं कि क्या कुछ नया और अभिनव हो रहा है हमारे शहर में, आसपास के गांवों में और दूर कहीं पर्वतीय हिस्सों में।

तो मैं बात कर रहा था आम के पेड़ की, जो ठीक मेरे घर के पीछे है। गर्मियों की दोपहरी में मुझे इसलिए कमरे में बंद कर दिया जाता था कि मैं इधर-उधर घूमने न जाऊं। बंद कमरे में बाहर की ओर देखने का एक मात्र सहारा था, खिड़की। जो बदलते वक्त के साथ अब हमारे बीच नहीं रही, उसकी जगह नये कमरे का दरवाजा बन गया है। मैं खिड़की से बैठकर इसी पेड़ को देखता था। उस समय यह चिड़ियों का बसेरा था। आजकल इस पर बैठकर कोयल गाना सुनाती है, वो भी कभी-कभी।

उस समय हमारे घर में बिजली नहीं थी और गर्मियां भी काटनी थी, बंद कमरे में। पेड़ शायद मेरी पीड़ा को समझता था और वो तपती दुपहरी में मेरे पास खिड़की के रास्ते हवा का झोंका भेजता था। यह बात मैं उस समय नहीं समझ पाया। अगर मैं यह बात समझ पाता तो मौका मिलते ही पेड़ से आम गिराने के लिए उस पर पत्थर नहीं बरसाता। पेड़ तब भी खुश था और आज भी खुश है। मैं आज यह महसूस करता हूं कि हवा में झूमती पेड़ की शाखाएं, शायद उसकी खुशी को बता रही थीं। मैं अब समझ गया कि पेड़ दूसरों को राहत और आनंद प्रदान करके कितना खुश रहता है। वो हम सभी को बता रहा है कि जीना है तो खुश रहो। उसने मुझे मुसीबतों से लड़ने की प्रेरणा दी है।

एक समय ऐसा भी आया था कि वह सूख गया था और लगा कि अब यह हमारे बीच नहीं रहेगा। हमने उसके लिए कुछ नहीं किया, केवल निराशा जाहिर करने के। पर, पेड़ निराश नहीं था, उसमें हमारे सबके लिए जीने की चाह था। वो पूरी उम्मीद के साथ जिंदगी के लिए जंग लड़ रहा था।

उम्मीद ही तो जीने का मार्ग प्रशस्त करती है, भले ही जीवन में कितना ही संघर्ष क्यों न हो। आशा के बल पर एक दिन आम का पेड़ जीत गया, उसकी सूखी काया में जिंदगी फिर से अंकुरित हो गई। एक के बाद दो, तीन और फिर अनगिनत हरी पत्तियों, टहनियों और डालियों के साथ वो फिर से मुस्कराने लगा और ठंडी हवा का झोंका देने के लिए तैयार है मेरा पड़ोसी वो आम का पेड़… जिसके मुझ पर बहुत सारे उपकार हैं, और मैंने आज तक उसके लिए कुछ नहीं किया।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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