Blog LiveFeatured

मेरा कमरा, मुझे अपनी किसी दीवार पर जगह देगा, इसका पूरा विश्वास है

राजेश पांडेय

कमरा निर्जीव है और मैं सजीव, क्योंकि विज्ञान ऐसा कहता है। माफ करना! मैं यहां विज्ञान को नहीं मानता, अपने कमरे के मामले में तो बिल्कुल भी नहीं। ऐसा मैं पहले नहीं कहता था और न ही समझता था। उम्र बढ़ने के साथ- साथ, मैं अपने लोगों को समझने लगा हूं। या तो मैं समझदार हो रहा हूं या फिर मुझे बुढ़ापे में अपनों से दूर हो जाने का डर सता रहा है। जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर कहां जाऊंगा, यह कमरा ही तो है, जो हर मुसीबत में मेरे साथ था और उम्मीद है कि साथ रहेगा। अकेले में इसकी दीवारों से बातें जो की हैं मैंने, बहुत सारी बातें, जिनमें से कुछ साझा हो सकती हैं और बहुत सारी नहीं।

मां बताती है कि जब तू एक साल का था, तब इस घर में आए थे। मैं 45 का हो गया हूं और मेरा कमरा 44 साल का। न तो मैं इससे दूर रहा और न ही यह मुझसे। वैसे भी यह तो कहीं नहीं जाता। मैं ही अगर चला जाऊं तो लौटकर इसके पास ही आ जाता हूं। जब मैं खुश होता हूं तो यह भी खुशी का इजहार करता है। इसका रंग हर दिवाली बदलता है। यह देखने लायक होता है, मजाल जाए, इसको खरोच भी लग जाए। अब मुश्किलों के दौर में यह घायल सा हो गया है।

यह हर दिवाली उम्मीद करता है कि इस बार तो कुछ अच्छा होगा। मैंने एक दिन इसको खुद से बातें करते सुन लिया। इसने तो अपनी दीवारों के लिए रंग भी सोच रखे हैं। रोशनी में कौन सा खिलेगा और कौन सा नहीं। कौन सा आंखों में नहीं चुभेगा और किस रंग को देखकर बच्चे खुश हो जाएंगे। डार्क शेड किस दीवार पर होगा और किस पर लाइट शेड। रंग वास्तु के हिसाब से या मनोविज्ञान के मुताबिक, पर मैं किसी भी हाल में सुन्दर और स्वस्थ दिखना चाहूंगा।

एक बात और मेरा रंग तो वो ही होना चाहिए, जो इस परिवार में रहने वालों को शांति और सुकून दे। आखिर इंसानों के जीवन में रंगों का भी बड़ा योगदान है। मैं तो इनका फैमिली मेंबर हूं, ये माने या न माने, मैं तो मानता  हूं। यह सुनकर मेरी आंखें नम हो गईं, ठीक वैसी हीं, जैसी बरसात में इसकी हो जाती हैं। परिवारवाले कहते हैं छत टपक रही है, पर मैं कहता हूं कि मेरा कमरे के जख्मों पर मरहम की जरूरत है। अगली बरसात तक हर हाल में मरहम लगा दूंगा। अब भी आप कहेंगे कि कमरा सजीव नहीं है। वो इंसानों से ज्यादा सजीव है, क्योंकि उसमें संवेदना बाकी है, जो इस रोबोटिक दुनिया में कम ही दिखती है।

जुलाई 2016 में ऐसा कुछ हुआ, जिसे बुरा वक्त नहीं बल्कि बदलाव कहें तो ज्यादा अच्छा होगा। मैं ऐसा मानता हूं। मानने से मुश्किलें तो दूर नहीं होतीं पर दिल को तसल्ली जरूर मिल जाती है। जब बदलाव होता है तो मुश्किलें भी आती हैं। मुश्किलों के सामने घुटने टेक लिए तो सबकुछ खत्म, अगर उनका सामना किया तो कल आपका होगा, हां आपका ही होगा, ऐसा मेरा दावा है, क्योंकि मुझे इसका अनुभव है। मुझे कल की चिंता तो थी, पर निराशा नहीं। मुझे पता था कि जो भी कुछ देख रहा हूं, झेल रहा हूं, यह सब जॉब छोड़ने से पहले अच्छी तरह सोच लिया था, इसलिए कोई भी मुश्किल मुझ पर हावी नहीं हो सकती। चुनौतियों में परिवार साथ है और मेरा कमरा भी,क्योंकि यह हमारी हर बात को सुनता है और समझता है।

मैं बहुत छोटा था, यही कोई छह-सात साल का। पापा की पोस्टिंग चकराता में थी। मुझे यह पता था कि पापा हर दूसरे शनिवार घर आएंगे। मैं इसी कमरे की खिड़की पर बैठकर पापा का इंतजार करता था। इस कमरे की दीवारें बहुत चौड़ी हैं और इस पर सरिया लगाकर बनाई गई खिड़की में कोई भी बच्चा आसानी से बैठ सकता था। उस समय घर का रास्ता इस खिड़की से दिखता था। पापा को आता देख मैं खुशी से उछल जाता और शोर मचाता, मम्मी, मम्मी… पापा आ गए, पापा आ गए। यह कहते हुए खिड़की से कूद लगा देता। उत्साह में चोट लगने का डर किस को रहता है, मुझको भी नहीं था। दौड़ता हुआ कमरे से बाहर यानी घर के बाहर आ जाता। पापा से लिपट जाता। कभी उनकी गोद में होता और कभी घर के आंगन में दौड़कर  खुशी को व्यक्त करता।

सच मानो, पापा के घर लौटने के वो दृश्य आज भी जेहन में हैं। जब भी इनको रिकॉल किया,आंखें नम हो गईं। पापा हमें हमेशा के लिए छोड़कर चले गए, लेकिन आज भी हमारे दिल में बसते हैं। मैंने कहीं पढ़ा है कि जो लोग रोजाना याद किए जाते हैं, वो कभी नहीं मरते। हम आखिरी सांस तक पापा और उनसे जुड़ी यादों को मन और मस्तिष्क में सहजकर रखेंगे, क्योंकि उन्होंने हमें जीवन दिया है और जीने का तरीका जो सिखाया है। अपनी खुशियों को किनारे करके हमारे लिए अपना दिनरात एक करने वाले पापा को कोई कैसे भुला सकता है भला।

इंतजार की घड़ी में पापा के आने की आशा बनी खिड़की को बदलते वक्त की जरूरतों ने वहां से हटा दिया। खिड़की की जगह अब दरवाजा है, जो नये कमरे में प्रवेश कराता है। यह कमरा बच्चों के लिए बनाया है। इसमें न तो बैठने वाली खिड़की है और न ही यहां रहने वालों बच्चों को पापा का इंतजार रहता है। फोन से पता चल जाता है कि कौन कब आ रहा है, इसलिए मेरी तरह खिड़की पर बैठकर घंटे, दो घंटे रास्ता ताकने की मजबूरी अब नहीं है।

मेरे कमरे ने पिता और पुत्र के स्नेह को करीब से देखा है। यह जानता है कि एक पुत्र अपने पिता के स्नेह को वापस लौटाने की हैसियत नहीं रखता, भले ही वो दुनिया का सबसे ताकतवर और समृद्ध शख्स क्यों न बन जाए। पिता के स्नेह का कोई मोल नहीं है, वह अनमोल है, क्योंकि उसमें कुछ पाने की चाह नहीं होती। मुझे याद है कि बचपन में दिनभर दौड़ दौड़कर खेलने की वजह से सोते समय मेरे पैरों में दर्द होता था। पापा से मेरी बेचैनी देखी नहीं जाती। वो मेरे पैर तब तक दबाते,जब तक कि मैं सुकून की नींद नहीं सो जाता।

जब मेरे घर में बिजली आई, तब मैं क्लास छह का छात्र था। यही कोई दस साल का था। देर शाम तक खेलने के बाद घर पहुंचता और अंधेरे में ही मेरा बस्ता खुलता था। मिट्टी तेल वाला लैंप जो बिजली के सामने आउट डेटेड हो गया था, मेरा सबसे ज्यादा विश्वसनीय था। बिजली धोखा दे दे, पर यह मेरे कमरे को उस समय तक निर्बाध उजाला देता, जब तक मैं चाहता। इसकी सबसे बड़ी खासियत थी कि यह उतने ही दायरे को रोशन करता था, जितने की जरूरत होती। इसका फायदा यह था कि मेरा ध्यान सिर्फ और सिर्फ किताब और कॉपी पर होता। बिजली आने पर मैं बहुत खुश था, क्योंकि मेरा घर अब बटन दबाते ही जगमगा रहा था। बिजली आई तो कमरे की दशा बदलने लगी। थोड़े ही दिन में वह पंखे वाला हो गया, मानो उसको स्टार लग गया।

कुछ साल बाद मेरे कमरे को टेलीविजन और टैप रिकार्डर जैसे साथी भी मिल गए। आप कहोगे, कमरे के साथी। मैंने इसमें कौन सा कुछ गलत कह दिया। भाई, बिजली इन सुविधाओं को कमरे में ही तो लाई थी। अकेले मेरा ही कोई एंटरटेनमेंट हो रहा था, लुत्फ तो वह भी उठाने लगा था। सच मानो, बिजली आने से पहले जल्द सो जाने वाला कमरा अब देर रात तक जागने लगा। उसकी शांति में कभी टेलीविजन तो कभी टैपरिकार्डर का खलल था। वह मेरे साथ देर रात तक जागता और मैं उसके साथ। मेरा बस्ता अब कभी कभार ही खुलता, किताबों से नाता टूटने जैसा हो गया, क्योंकि मैंने दुनियाजहां का ज्ञान बांटने वाले टेलीविजन से दोस्ती जो कर ली थी।

वक्त बदलने के साथ साथ टेलीविजन का मनोरंजन भी मेरी तरह बचपन से युवावस्था की ओर बढ़ गया था। मैंने और मेरे कमरे ने टेलीविजन पर क्या – क्या देखा, यह हमारे सिवाय किसी तीसरे को आज तक पता नहीं चल पाया। कमरा और उसकी दीवारें आज भी मेरे साथ अपनी दोस्ती को निभा रही हैं। बचपन का यह साथ बुढ़ापे तक नहीं बल्कि सांसें बंद होने के बाद भी निभाया जाता रहेगा। फिर यह मुझे अपनी किसी दीवार पर जगह देगा, इस बात का पूरा विश्वास है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button