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अखबार में कोई किसी का नहीं होता, मत करो किसी की परिक्रमा

अखबार में काम करने के शुरुआती वर्षों में, मैं हमेशा यही समझता था कि यहां बिना गॉड फादर के काम नहीं चलता। आपको किसी न किसी की अंगुली पकड़कर ही आगे बढ़ना होता है। जो लोग आपको अखबार में एंट्री कराते हैं, जो आपको कुछ सिखाते हैं, कुछ बताते हैं, वो ही आपके सबकुछ हैं।

बात सही है, हो भी क्यों न,अगर ये आपकी मदद नहीं करते तो आप पत्रकारिता में कैसे आते। इन लोगों को कभी नहीं भुलाना चाहिए, पर याद रखिएगा, इनमें से अधिकतर लोग कई मौकों पर अपने लाभ के लिए आपको इस्तेमाल करने की कोशिश करते हैं।

कई मौकों पर आपको बेइज्जत कर सकते हैं और मैनेजमेंट की निगाह में अपने नंबर बढ़ाने के लिए आपको कब इस्तेमाल कर दिया, पता ही नहीं चलेगा। उस समय आप युवा होते हैं और उनके हर निर्देश में अपनी भलाई समझते हैं, भले ही उसको पूरा करने में आपको पहाड़ जैसी बड़ी दिक्कतों को क्यों न झेलना पड़े।

यह बात मैं उन युवाओं के लिए लिख रहा हूं, जो मेहनत, ईमानदारी और लगन के बल पर आगे बढ़ना चाहते हैं। जो अपनी किस्मत को खुद लिखना चाहते हैं, वो अखबार की दुनिया में किसी को भी अपना भगवान न समझें। उनके भगवान उनकी मेहनत, लगन और ईमानदारी हैं। हां, कुछ साल लगते हैं आगे बढ़ने में। अगर, आपके पास चुनौतियों से लड़ने का अनुभव है तो आपकी पत्रकारिता किसी व्यक्ति या संस्थान की मोहताज नहीं होती।

वैसे आपको बता दूं कि अखबारों में कुछ लोगों का वास्ता खबरों से कम, परिक्रमा से ज्यादा होता है। उनको अपनी तरक्की का रास्ता इसी परिक्रमा में दिखता है। वहीं कुछ लोग धरती पर भगवान बनने की कोशिश करते हुए इस परिक्रमा का आनंद उठाते हैं।

ये लोग किसी शहर के दफ्तर से लेकर राजधानियों और फिर अखबारों के सबसे बड़े दफ्तरों में मिल जाएंगे। मजेदार बात तो यह है कि परिक्रमा करने वाले भी चाहते हैं कि उनके आर्बिट में भी कोई चक्कर काटे। दुखद स्थिति यह है कि इनके आर्बिट में वो युवा भी चक्कर लगाने को मजबूर हो जाते हैं, जो पत्रकारिता में कुछ अलग करने की चाह लेकर आते हैं। जो मेहनत से कार्य करते हैं और सीखते हैं। इनकी परिक्रमा का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ सम्मान व्यक्त करना और कुछ सीखना होता है। इन युवाओं पर किसी न किसी आर्बिट में होने की मुहर लग ही जाती है।

अपने अनुभव के आधार पर मुझे यह करने में कोई संकोच नहीं है कि शुरुआती कुछ वर्ष मैंने भी इसी तरह का आभार और सम्मान व्यक्त करने में बिता दिए। मुझे लगता था कि मुझे पत्रकारिता सिखाने और अखबार में एंट्री कराने वाले को मेरा कोई व्यवहार खराब नहीं लगे। मैं उनकी हर बात और उनके कार्य और लेखन शैली को अपना आदर्श मानने लगा।

यही वजह है कि मुझ पर भी किसी के आर्बिट में होने की मुहर लग गई थी, जिसका असर वर्षों झेला। वैसे मीडिया में काम करने वाले अधिकतर लोगों पर किसी न किसी के ग्रुप में होने की छाप लगती रही है और इसका लाभ कम, खामियाजा ज्यादा भुगतना पड़ता है। इसलिए पत्रकारिता में आने वाले या आने की चाह रखने वाले युवाओं को सलाह है कि वो अपने ऊपर किसी की छाप या ग्रुप में होने की आशंकाओं से जितना हो सके, बचने की कोशिश करें।

सबसे ज्यादा दुख तब होता है, जब वर्षों बाद भी, न तो आगे बढ़ने का कोई रास्ता दिखता है और न ही पीछे जाने की कोई वजह मालूम पड़ती है। आपको कैसा लगेगा, जब आप ढंग से इस्तेमाल किए जाओगे और दस साल में भी स्वयं को वहीं खड़े पाओगे, जहां से चलना शुरू किया था। मैं जीवन की हर सुबह को लेकर आशावान हूं, इसलिए ढलती शाम और उम्र मुझे कभी निराश नहीं करती।

भले ही दस साल में पद और पैसा नहीं पाया, पर अनुभव इतना हासिल कर लिया था कि पत्रकारिता में किसी भी चुनौती को इंज्वाय कर सकता था और आज भी कर सकता हूं। मैं खुश हूं कि होश संभालते ही मैंने खुद की पीठ पर चस्पा मुहर को धो दिया था और वरिष्ठों की समूह बंदी से बाहर आ चुका था।

अखबारों में बड़ी संख्या में पत्रकारों की सुबह, शाम और रात केवल खबरों को पाठकों तक पहुंचाने में बीत जाती है। इनमें से अधिकतर को वर्षों बाद भी प्रमोशन नहीं मिल पाता, लेकिन वो फिर भी अखबार में पूरे मनोयोग से अपनी भूमिका निभाते हैं। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि वर्षों बाद अखबार ही उनकी आजीविका का एकमात्र साधन यानी नौकरी होता है, जिसे हर हाल में निभाना है, अपने लिए और परिवार के लिए।

अब मैं आपको अपना किस्सा सुनाता हूं, जो स्पष्ट कर देगा कि पत्रकारिता में अपने ऊपर किसी की मुहर मत लगने देना। उन लोगों का सम्मान करना चाहिए, जो आपको आगे बढ़ाते हैं और कुछ सिखाते हैं। वर्ष 1996 में पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान मुझे एक अखबार में विज्ञप्तियां लिखने का काम मिल गया। कौन सी विज्ञप्ति को कितना महत्व देना है, यह जानकारी भी मुझे दी जाती रही। कई बार डांटकर और कभी स्नेह से।

मुझे मात्र पांच सौ रुपये महीने मानदेय पर अखबार में काम मिला था,जो मेरे लिए बहुत था और मैं काफी खुश था। आपको बता दूं कि उस समय ट्यूशन पढ़ाकर हजार-डेढ़ हजार रुपये महीने कमा लेता था। पर, अखबार में काम करना मेरे लिए बड़ी बात थी। इसलिए ट्यूशन पढ़ाना छोड़ दिया। दिनभर अखबार के दफ्तर में बैठकर लैंडलाइन फोन पर सूचनाएं इकट्ठा करता और संबंधित रिपोर्टर को दफ्तर आने पर बता देता। उस समय मोबाइल फोन नहीं थे, कुछ रिपोर्टर के पास पेजर थे। तीन डिजीट के नंबर वाले पेजर का काम ठीक किसी मैसेंजर की तरह था।

ग्रामीण क्षेत्र में पलने और पढ़ने वाले 22 साल के युवक के लिए शहर में किसी जाने माने अखबार के दफ्तर में बैठकर तमाम विज्ञप्तियों को खबरों में ढालना किसी बड़ी कामयाबी सा था। मैं सोचता था कि मैं कितना भाग्यशाली हूं कि मैंने अपने जीवन में बेरोजगारी नहीं देखी। सीखने के लिए जमकर डांट खाई। एक दिन मुझसे कह दिया कि तुम अपने कस्बे की रिपोर्टिंग करके लाओ। मैंने मेहनत से पहली बार रिपोर्टिंग की खबर लिखी, जिसके बारे में आज भी सोचकर मुस्कराने लगता हूं।

अपने कस्बे की नालियों, सड़कों की हालत, अतिक्रमण, अस्पताल, बिजली, पानी, सब पर लिख डाला था। उस समय बड़ी खुशी हुई थी, जब मेरे शब्द तो अखबार में नहीं छपे थे, पर मेरी कोशिश पूरी दिखाई दी थी। मैंने अपने दोस्तों को उस खबर की कटिंग दिखाई थी।

एक वर्ष हो गया और मुझे रिपोर्टिंग के लिए कुछ छोटे-छोटे टास्क दिए जाने लगे। मुझे याद है कि हिन्दी भवन में एक काव्य गोष्ठी की कवरेज में पूर्वाह्न 11 से शाम तीन बजे तक बैठा रहा। दफ्तर में देरी से पहुंचने पर डांट भी पड़ी थी। हर कवि की एक-एक लाइन नोट की थी और फिर खबर लिखने बैठा तो एक घंटा से ज्यादा लगा दिया। फिर डांट पड़ी और खबर फटाफट लिखकर, चेक कराकर कंप्यूटर आपरेटर के हवाले कर दी। दूसरे दिन अखबार में मेरी यह खबर कट छंटकर दो कॉलम में दिखाई दी। धीरे-धीरे ही सही पर रिपोर्टिंग का अनुभव लेता रहा।

एक दिन एक खबर को बिना पेन छुआए, पास कर दिया गया। उस दिन कह दिया गया कि आज से तुम्हारी खबरें कोई चेक नहीं करेगा, सीधे टाइप होने के लिए भेज दो। तुम्हें हिन्दी टाइपिंग सीखनी होगी। इसके लिए ज्यादा से ज्यादा दस दिन का समय। उस समय अखबारों के दफ्तरों में कंप्यूटर के कीबोर्ड को अंगुलियों से पीटने का सौभाग्य सभी को नहीं था।

मैंने बाहर किसी इंस्टीट्यूट में सीखना शुरू किया। कुछ समय बाद मौका मिल ही गया, अखबार के कंप्यूटर के सामने बैठने का। उस समय सीखने का जज्बां बहुत था और दस दिन में टाइप करना सीख गया।

हम कंप्यूटर रूम में शूज बाहर उतारकर जाते थे। वहां आलपिन रखने तक की मनाही थी। एसी रूम में बड़ा मजा आता था। ग्रामीण इलाके में, जहां बिजली कई कई घंटे नहीं आती थी, वहां के किसी युवा के लिए गर्मियों की शाम एयर कंडीशन्ड के साये में गुजारना बड़ी बात थी। आज भी यह सोचकर आनंदित हो उठता हूं।

एक दिन किसी दूसरे शहर में भेज दिया गया, बतौर असिस्टेंट। वहां मुझे पत्रकारिता को नजदीकी से जानने का मौका मिला। दो रिपोर्टर और पूरा शहर। कई सारे दफ्तर और बड़ा अस्पताल और डिग्री कालेज, पूरे गढ़वाल का मुख्य बाजार। आधा ग्रामीण और आधा शहरी इलाका।

मेरे इंचार्ज को मुझ पर पूरा भरोसा था और वो मुझे अकेला छोड़कर कुछ दिन के अवकाश पर शहर से बाहर चले जाते थे। कहते थे, तुम संभाल लोगे, मुझे पूरा विश्वास है। अनुभव मिलता गया और आगे बढ़ता गया।

तीन साल हो गए, मैं अभी भी ट्रेनी ही था, जिसके भरोसे आप एक प्रमुख शहर की पत्रकारिता का जिम्मा सौंप रहे हो, उसे ट्रेनी से एक कदम भी आगे क्यों नहीं बढ़ाया। तनख्वाह 500 से बढ़ाकर 2500 हो गई थी। तब भी बड़ा खुश था, क्योंकि मैं एक शहर में प्रतिष्ठित अखबार का रिपोर्टर जो था। बाहर किसी को क्या मालूम कि मैं ट्रेनी हूं यानी अभी तो पत्रकारिता सीख रहा हूं।

उस समय यूपी के बड़े अधिकारियों और मंंत्रियों से सीधे मिलता था, अपने अखबार का नाम लेकर। बिना फोन और स्कूटर के विक्रम टैंपों के सहारे एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर और शहर से ग्रामीण इलाकों में घूमने का शौक था मुझे। जितना कमाता था, उतना गंवाता था बस और टैंपों के किराये में। पिता से मिलने वाले जेब खर्च को पत्रकारिता में एक दिन बड़ा नाम करने का सपना बुनने के लिए गंवा रहा था।

वर्ष 1999 में एक फोन आया और मैंने समझा कि मेरा सपना पूरा हो जाएगा, ज्यादा से ज्यादा एक साल लगेगा। मुझे हिमाचल प्रदेश में अखबार की लांचिंग टीम का मेंबर बनाते हुए एक ऐसे जिले का जिम्मा देने की बात कही गई, जिसका नाम मैंने कुछ ही बार सुना था। मैं मंडी जिला इंचार्ज बन गया था। मैंने किसी ट्रेनी को जिला इंचार्ज बनते हुए महसूस किया। मुझे क्या पता था कि ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे इतना अधिक खुश या उत्साहित हुआ जाए।

देहरादून के बाद में दूसरी बार लांचिंग टीम का मेंबर बन रहा था। मैं मन ही मन खुश हुआ कि नई जिम्मेदारी,वो भी जिले की और नई जगह में काम करने का मौका, वाकई बहुत अच्छा होगा। कुछ दिन में हमें कुछ रुपये देकर उस प्रदेश में भेज दिया गया, जहां मैं तो कभी नहीं गया और उस शहर के बारे में कम ही जानकारी थी।

गर्मियों की रात दो बजे मंडी शहर में उतरा। सुनसान बस स्टैंड पर मैं और मेरा बिस्तरबंद था।

लिखते लिखते थक गया हूं, आगे की बात कल लिखूंगा…बोनस में डायबिटीज और हाई बीपी जो मिले हैं, ज्यादा देर कंप्य़ूटर के सामने बैठा नहीं जाता। …. कल फिर मिलते हैं।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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