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केशवपुरी में रोटी बैंक वाले मनीष जी

मैंने अपने मित्र से सुना है कि केशवपुरी में एक बालिका रहती है, जो कोई शब्द बताते ही तुरंत कविता बना सकती है। वाकई बहुत मेधावी है यह बच्ची, लेकिन मैं उससे मुलाकात नहीं कर पाया। केशवपुरी वह इलाका है, जहां अधिकतर परिवारों के सामने हर सुबह रोजगार की तलाश, एक बड़ा सवाल होता है। यहां शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता के लिए जागरूकता की दरकार हमेशा महसूस की जाती रही है।

केशवपुरी औऱ राजीवनगर में रहने वाले कुछ बच्चे डोईवाला की सड़कों पर ही पूरा दिन बिताते हैं। यहां के कई बच्चों को स्कूल का रास्ता दिखाने की जरूरत है। हालांकि यहां सरकारी स्कूल है, लेकिन इन बच्चों को वहां तक ले जाने की चुनौती भी हम सभी को स्वीकार करनी होगी। और भी बहुत कुछ सुना है मैंने केशवपुरी के बारे में…, जिसका जिक्र मैं इसलिए भी नहीं करूंगा, क्योंकि समस्या बताने, सुनाने से ज्यादा विश्वास समाधान पर करना चाहिए।

अभी तक केशवपुरी की यह तस्वीर सबके सामने पेश की जाती रही है। अब आपके सामने केशवपुरी की दूसरी तस्वीर पेश करता हूं, जो वाकई कमाल की है। अब मैं यहां से प्रज्ज्वलित हुई एक ऐसी मशाल का जिक्र कर रहा हूं, जिसकी रोशनी में भूख के खिलाफ एक जंग चल रही है। यह वो बड़ी जंग है, जिसकी शुरुआत एक युवा ने की है, जो दिन हो या रात, सुबह हो या शाम, केवल उनके लिए जीने की कोशिश करता है, जिनसे उसका एक ही रिश्ता है, वो है मानवता का।

कविता वाली बिटिया के घर का पता पूछने के दौरान मेरे मित्र और शिक्षक अजेश धीमान ने मुझे बताया कि केशवपुरी में रोटी कपड़ा बैंक भी है, जिसे मनीष उपाध्याय चलाते हैं। मनीष जी का फोन नंबर मिल गया और रविवार शाम करीब सात बजे तक धिनाधिन की टीम मैं और बेटा सार्थक केशवपुरी में मनीष जी के घर पहुंच गए। केशवपुरी स्थित सरकारी स्कूल के पास है रोटी कपड़ा बैंक, जहां से शुरू हो रही है मानवता के लिए एक बड़ी मुहिम, वो भी बिना किसी शोर के।

रविवार को एक भंडारे से बहुत सारी पकौड़ियां रोटी बैंक में जमा कराई गई थीं। अन्य दिनों में मनीष शाम पांच बजे से पहले ही घर पहुंच जाते हैं। आज मनीष को भी घर लौटने में थोड़ा देर हो गई थी। इसलिए तय किया गया कि पकौड़ियां और खिचड़ी बांटी जाए। मनीष और उनकी पत्नी संतोष करीब 25 से 30 लोगों के लिए खिचड़ी बनाने में जुट गए। संतोष केशवपुरी में ही आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं और रोटी कपड़ा बैंक में मनीष को सहयोग करती हैं। मां अमरेश देवी कहती हैं कि रोटी बैंक पर उनको काफी गर्व है।

करीब आठ माह से रोटी कपड़ा बैंक चल रहा है। मनीष बताते हैं कि वह हाट पर सब्जियां बिक्री करते थे, लेकिन वहां काफी समय लग जाता था, इस वजह से खाना बांटने में देरी होती थी। अगर किसी को समय पर खाना नहीं मिलेगा तो भूखा ही सो जाएगा। कोई भूखा सो जाए, यह स्थिति बड़ी पीड़ा देने वाली है। इसलिए उन्होंने हाट पर जाना छोड़ दिया।

अब वह मंडी से आलू, प्याज लाकर सीधे दुकानों को सप्लाई करते हैं। शाम पांच बजे तक घर लौटकर सब्जी, रोटी बनाने में जुट जाते हैं। अभी तक एक या दो दिन ही ऐसा हुआ होगा, जब हम भोजन देने नहीं जा सके। बहुत बुरा लगा था उस दिन। कोई हमारा इंतजार करे और हम नहीं पहुंचे, यह तो सही बात नहीं है। इसलिए हम हर शाम खाना लेकर जाएंगे, यह हमारा इरादा है।

हमारे पूछने पर मनीष बताते हैं कि रोजाना करीब साढ़े चार किलो आटा गूंथते हैं। रोटियां बनाने के लिए पड़ोस से कुछ बेटियां आ जाती हैं। कभी कभार वह स्वयं रोटियां बनाते हैं। उनके पिता सत्यप्रकाश जी कैटरिंग का व्यवसाय करते हैं, इसलिए वह भी खाना बनाना अच्छे से जानते हैं।

करीब 30 साल के मनीष की सोच बड़ी है और वह रोटी कपड़ा बैंक तक ही सीमित नहीं रहना चाहते, उनकी योजना भविष्य में वृद्धाश्रम बनाने की है। ऐसा वह उन बुजुर्गों की स्थिति को देखकर सोचते हैं, जो या तो अपने बच्चों के तिरस्कार को सहन कर रहे हैं या उनका कोई सहारा नहीं है। मनीष ने बताया कि शुरुआत में 90 साल के व्यक्ति को भोजन का पैकेट दिया था, उनका कहना था पहले खुद खाओ।

मनीष ने तुरंत पैकेट खोला और उनके सामने रोटी सब्जी खाई। इस पर उस व्यक्ति ने धन्यवाद कहकर उनसे खाना ले लिया। उस दिन से मनीष बांटने के लिए ले जाने से पहले भोजन को स्वयं चखते हैं, यह इसलिए भी, क्योंकि वह जानना चाहते हैं कि खाना कैसा बना है। इसमें कोई कमी तो नहीं है।

दूसरे के विश्वास को बनाकर रखने के साथ ही मनीष उन लोगों की निजता का भी सम्मान करते हैं, जिनको रोजाना शाम भोजन दिया जाता है। वह बताते हैं कि दो परिवार डोईवाला से दूर किसी गांव में रहते हैं, वहां शाम को भोजन पकाकर भेजना मुश्किल है, इसलिए उनको पूरे माह का राशन भेजा जाता है। भोजन वो स्वयं पका लेते हैं। इस पूरे कार्य को वह अपने स्तर से, दोस्तों के सहयोग से, कुछ समाजसेवियों की मदद से पूरा कर रहे हैं। शादी, समारोह में बचने वाले भोजन के लिए उनके पास सूचना आ जाती है, वह अपने टैंपों से यह खाना लेकर आते हैं और पैकेट बनाकर बांट देते हैं।

बताते हैं कि मानसिक रोग की वजह से सड़कों पर घूमने वाले, रेलवे स्टेशन पर बेसहारा पड़े, गरीबी और उम्र की वजह से भोजन का इंतजाम नहीं कर पाने वाले लोगों के लिए रोटी कपड़ा बैंक काम कर रहा है। हम केवल शाम को भोजन परोस रहे हैं। दुकानदार निखिल गुप्ता, छात्र लकी कुमार, सिटी बस ड्राइवर मोनू, नीतू सहित करीब 50 युवा इस कार्य में समय-समय पर सहयोग करते रहे हैं। हमारे पास बांटने के लिए कपड़े भी आते हैं। वह बागवानी का शौक भी रखते हैं और पौधे तैयार करके आसपास के लोगों को बांटते रहे हैं।

उन्होंने बताया कि मैं यह सब इसलिए कर रहा हूं,क्योंकि मुझे अच्छा लगता है। हर व्यक्ति दुनिया में किसी खास मकसद के लिए आता है। ईश्वर ने मुझे यह कार्य सौंपा है, तो मैं ऐसा कर रहा हूं। मैं किसी पर कोई अहसान नहीं कर रहा, बल्कि अपने इंसान होने का फर्ज निभा रहा हूं। मुझे लगता है कि हर व्यक्ति को कुछ न कुछ ऐसा करना चाहिए, जो इंसानियत को आगे बढ़ाए। सभी अच्छा महसूस करें, खुश रहें, मैं तो बस इतना चाहता हूं।

मनीष जी से फिर मिलने का वादा करके मानवभारती प्रस्तुति तक धिनाधिन की टीम वापस लौट आई। हम फिर केशवपुरी जाएंगे उस बिटिया से मिलने के लिए जो कोई भी शब्द बताते ही तुरंत कविता की रचना कर देती है, तब तक के लिए बहुत सारी खुशियों और शुभकामनाओं का तक धिनाधिन।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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