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सत्ता की संजीवनी हूं मैं

  • राजेश पांडेय

लोग कहते हैं कि मैं जिंदगी बर्बाद करती हूं, क्या तुमने उन लोगों के बारे में जानने की कोशिश की है, जिनको मैंने आबाद कर दिया। वो मेरे नाम पर अपनी कई पीढ़ियों और नस्लों को सुधार गए। मुझे जहर कहते हो पर सत्ता और सियासत के गलियारों में तो मैं संजीवनी के नाम से जानी जाती हूं।

मैंने उनको कहते हुए सुना है कि अगर मैं न हूं तो उनकी रियासत के ठाठ बाट कौन और कैसे झेलेगा। मेरे बिना तो वो बेचारे गरीब और संसाधनहीन हो जाएंगे न। मुझ पर झूठी तोहमत गढ़ने वालों अब तो तुम्हारी समझ में आ गया है न, कि विकास की वो किरण मैं ही हूं, जो सरकार के खजाने को चाहे तो रोशन कर दे या फिर उसमें कुछ दिखे ही न।

समुद्र मंथन से निकली फसल हूं मैं। देवता अमृत चख गए और असुरों के हाथ मैं लग गई, तब से लेकर आज तक ऐसा ही कुछ चल रहा है। अच्छा हुआ जो मैं देवताओं के पास नहीं पहुंची, वरना आज तो मेरी फजीहत ही हो जाती। जमाना मेरा और मेरे अपने लोगों का है, इसलिए मेरे वजूद पर संकट नहीं आ सकता।

मेरे खुश होने की वजह भी कुछ यही है कि मैं लाख दागदार होते हुए भी राजदरबार तक पहुंच बना ही लेती हूं। मेरी एक खासियत यह है कि मैंने सियासत करने वालों और सत्ता चलाने वालों , दोनों का भला किया है। इसलिए पाला बदल भी जाए तो मेरी हैसियत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। कह सकते हैं कि वो मेरे लिए पहले भी खरे थे और आज भी खरे हैं।

मुझको कोसने वालों अगर मैं न हूं तो सरकार तुम्हारे लिए सुविधाएं कहां से जुटाएगी। सड़कें कहां से बनेंगी। तुम जो पुल की, अस्पताल में दवाइयों की, जच्चा बच्चा के लिए एंबुलेंस की, बच्चों के लिए स्कूल, टीचर और किताबों की मांग करते रहते हो, वो कहां से पूरी होंगी। मैं ही तो यह सब तुम्हारे लिए जुटाती हूं। अगर विश्वास न हो तो पुरानी या फिर नई  सरकार से जाकर पूछ लो।

राजा साब तो कहते हैं कि वो मुझे बंद करा देंगे, पर तुम्हारे अपने लोगों का क्या होगा, जो मेरे लिए मारे-मारे फिरते हैं। मैं कहीं भी अपना अड्डा जमा लूं, वो वहीं आकर मुझसे इश्क का इजहार कर ही लेंगे।  उनको मेरी ही नहीं ब्लकि तुम्हारे अपने लोगों की भी बड़ी फिक्र है। वो मेरी तलाश में भटकने की बजाय देर रात को ही सही, अपने घर पहुंच जाएं, इसलिए मेरे अड्डे को नहीं छेड़ा, भले ही चाहे उनको नेशनल लेवल के माल पर लोकल ठप्पा लगाना पड़ गया हो।

उन पर इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरा मजमा, मंदिरों के पास लगे या मस्जिद के नजदीक। मै जहां अपना अड्डा जमा लूं, वहां भीड़ लग जाती है। मेरे एक नहीं बल्कि कई ब्रांड मिल जाएंगे। एक और बात, मेरा महंगाई से कोई वास्ता नहीं है। ट

मैं तो उन सभी लिए अनमोल हूं, जो मुझे खरीदते हैं, जो मुझे बेचते हैं या जो मुझे बिकवाते हैं। मैं ब्रांड हैं और कुछ के लिए तो ब्रांड एंबेसडर बन गई। चर्चा इतनी पाली कि मैं उनके नाम से बिकने लगी। उनका नाम ले लिया तो झट से मैं हाजिर हो जाती थी। आज भी कुछ जगह ऐसा ही है। वो बदल गए पर मैं नहीं, मैं आज इनके जमाने में भी कुछ कम मशहूर नहीं हूं।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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