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जानिये, कहां से आया यह बॉल पेन

आप पढ़ाई कर रहे हों या कोई कामकाज, चाहे अफसर हों या कर्मचारी, व्यवसायी हों या किसी ओर प्रोफेशन से वास्ता रखते हों, आपको बॉल प्वाइंट पेन की जरूरत हमेशा ही रहेगी। आप तो जानते ही हैं कि मोबाइल के आने से भी सैकड़ों साल पहले से बॉल पेन मनुष्य का साथी हूं। अब भले ही मोबाइल और कंप्यूटर का चलन बढ़ा है। मोबाइल पर कई तरह के एप्लीकेशन उपलब्ध हैं, जिन पर आप नोटिंग कर सकते हैं। 

तकनीकी के इस युग में लोग कंप्यूटर पर कीवर्ड की मदद से लिखकर सेव कर देते हैं, लेकिन फिर भी पेन की जरूरत हमेशा रहेगी। क्या आप जानते हैं, आपकी जेब और बैग में हर समय रहने वाला बॉल प्वाइंट पेन कहां से आया यानि किस व्यक्ति ने इसका अविष्कार किया।

बॉलपेन बनाने के लिए कई तरह के प्रयोग होते रहे, लेकिन पहला सफल अविष्कार एक हंगेरियन एडीटर लाजेलो बाइरो ने 1930 में किया था। हालांकि इससे पहले भी पेन इस्तेमाल होता था, लेकिन कागज पर स्याही फैल जाती थी और काफी देर में सूखती थी। लिखते समय स्याही के धब्बे कपड़ों और हाथ में लग जाते थे।

लाजेलो बाइरो एक ऐसी न्यूज पेपर इंक चाहते थे, जो हाथ से लिखते समय ही सूखती जाए। वह ड्राइ इंक बनाने और उसके लिए पेन डिजाइन करना चाहते थे। उनके भाई जॉर्ज कैमिस्ट थे, जिन्होंने इस अविष्कार में उनकी मदद की।1938 में दोनों भाइयों ने बॉल पेन के अविष्कार को पैटेंट कराया। दूसरे विश्वयुद्ध में ब्रिटिश पायलट ने इस पेन को इस्तेमाल किया था।

1988 में भी ब़ॉल प्वाइंट पेन का पहला पैटेंट जॉन जे लॉउड  के नाम है। उनका डिजाइन किया हुआ बॉल पेन केवल लेदर पर ही मार्किंग कर सकता था, कागज पर नहीं। बॉल प्वाइंट पेन ने धीरे-धीरे फाउंटेन पेन की जगह लेनी शुरू कर दी। इससे पहले लिखने के लिए कई तरह की कलम इस्तेमाल होती थीं, इसमें पक्षियों के पंख भी शामिल थे। स्याही अक्सर फैल जाती थी और कपड़ों और कागज पर धब्बे पड़ जाते थे।

1945 में मार्सेल बिच ने बाइरो ब्रदर्स से बॉल प्वाइंट पेन का पैटेंट खरीद लिया और इसको BIC नाम दिया, जो आज बड़ी पेन कंपनी के नाम से जाती है। दुनिया में BIC कंपनी के रोजाना लगभग 14 मिलियन पेन की बिक्री होती। कुछ देशों में बॉल प्वाइंट पेन को बाइरोज के नाम से जाना जाता है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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