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दून में सहस्रधारा ही नहीं घुत्तू में भी गंधक जलस्रोत

  • प्रेम पंचोली
  • वैसे तो हिमालय के शिवालिक क्षेत्र में गंधक युक्त पानी के चश्मे (स्रोत) मिलते ही हैं, लेकिन उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून में इन चश्मों ने अपनी सुन्दरता से लोगों को आकर्षित किया है। अब हालात इस कदर हैं कि ये गंधकयुक्त पानी के चश्मे प्राकृतिक स्वरूप खोते जा रहे हैं।
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    PREM-PANCHOLI

    भले ही देहरादून से 10 किमी के फासले पर सहस्रधारा पर्यटकों को वर्षभर आमंत्रण क्यों न देता हो पर वर्तमान में सहस्रधारा की ‘गंधकयुक्त जल धारा’ हर साल कम होती जा रही है। सहस्रधारा के अलावा देहरादून से लगभग 30 किमी के फासले पर ‘घुत्तू गंधक पानी’ प्राकृतिक आपदा की मार झेल रहा है। यह बांदल नदी के जल ग्रहण क्षेत्र में सहस्रधारा से ज्यादा गंधक की मात्रा वाला दूसरा चश्मा है, जो अब तक उपेक्षित है। इसके संरक्षण के लिए कोई कारगर योजना नहीं बनी और न ही इसकी मरम्मत पर कोई काम हुआ। वर्ष 2013 की आपदा और मौसम परिवर्तन के कारण इस चश्मे का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ता ही जा रहा है। इसमें पानी कम होता जा रहा है। यह आपदा और अन्य प्राकृतिक घटनाओं के कारण गाद से भरने लग गया है।

  • ‘घुत्तू गंधक पानी’ तक पहुँचने के लिए प्राकृतिक सौन्दर्य का नजारा पेश आएगा। एक छोटा सा ट्रैकिंग रूट, बांदल नदी का किनारा लोगों को बरबस आकर्षित करते हैं। माल देवता के पास सत्यौ गाड़ और बांदल नदी का संगम भी देखते ही बनता है। सत्यौ गाड़ और बांदल नदी माल देवता के पास संगम के बाद सौंग नदी का रूप ले लेते हैं। सत्यौ गाड़ में गर्मियों में नाममात्र पानी रह जाता है, लेकिन बांदल नदी के कारण माल देवता से आगे सौंग नदी का प्रवाह बना रहता है। अर्थात सौंग नदी में भी गंधक की मात्रा है।    देहरादून से 30 किमी दूर बांदल घाटी में ग्राम पंचायत घुत्तू की सीमा में यह गंधकयुक्त चश्मा पर्यटकों की नजरों से आज भी ओझल है। विडम्बना ही है पर्यटन की अपार संभावनाओं के बाद भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसके पानी से स्नान करने से त्वचा संबंधी रोगों से मुक्ति मिलती है।
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    घुत्तू गंधक जलस्रोत, देहरादून

    घुत्तू, द्वारा, तमोली, क्यारा के साथ ही नजदीक के हल्द्वाड़ी, रंगड़गाँव समेत क्षेत्र के तमाम गाँवों के लोग त्वचा संबंधी बीमारियाँ होने पर इसी स्रोत की शरण में जाते हैं। इस चश्मे से गंधकयुक्त पानी निकलने के कारण क्षेत्रवासियों ने इस जगह का नाम ‘गंधक पानी’ ही रख दिया है।मालदेवता से बांदल नदी के किनारे-किनारे 15 किमी की दूरी तय कर इस स्थल तक पहुँचा जा सकता है। परन्तु यह ध्यान रखना होता है कि माल देवता से ‘घूत्तू गंधक पानी’ तक पहुँचने के लिए जाने वाली सड़क थोड़ी सी बारिश होने पर कभी भी नदी में तब्दील हो सकती है। इसलिये ‘घुत्तू गंधक पानी’ तक पहुँचने के लिये पैदल जाना ही ज्यादा सुरक्षित है। यह एक बेहतर ट्रैकिंग रूट भी है। प्राकृतिक नजारों से भरा यह स्थल अभी तक पर्यटकों की निगाह से दूर है।

  • शासन-प्रशासन की ओर से इस दिशा में कोई प्रयास भी होते नजर नहीं आ रहे हैं। रंगड़गाँव के प्रधान भरत सिंह बताते हैं कि इस चश्मे के पानी में सहस्रधारा की अपेक्षा गंधक की मात्रा अधिक है। दो दशक पूर्व पर्यटन विभाग के तत्कालीन महानिदेशक एसएस पांगती ने  इसे पर्यटन की दृष्टि से विकसित करने की बात कही थी, लेकिन यह कोरी साबित हुई। इसके अलावा राज्य बनने के बाद मंत्रियों नवप्रभात और मातबर सिंह कंडारी ने क्षेत्र के लोगों को ऐसा ही भरोसा दिया था, लेकिन अब तक कुछ होता नजर नहीं आ रहा। यदि इस चश्में के संरक्षण पर कार्य नहीं हुआ तो जल्दी ही यह सूखने की कगार पर आ जाएगा।
  • ग्रामीण विक्रम सिंह पंवार का कहना है कि उनके लिए तो यह पानी का चश्मा प्रकृति का दिया हुआ महत्वपूर्ण उपहार है। क्योंकि उनके क्षेत्र में त्वचा जैसी बीमारी इसके कारण पनप नहीं सकती और न ही इस क्षेत्र में त्वचा से संबंधित रोगी हैं। वह कहते हैं इस चश्में का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ता जा रहा है।
    अब इस क्षेत्र में एक तरफ पर्यटकों का आना-जाना और दूसरी तरफ वन कानूनों की सख्ती से भी यह प्राकृतिक जलस्रोत लोगों के अधिकार क्षेत्र से बाहर होने लग गया है। लोग बिना ‘वन विभाग’ की अनुमति के इस क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और दोहन नहीं कर सकते।
  • हाल में हुई भारी बरसात के कारण बांदल नदी का जलस्तर इतना बढ़ गया था कि इस क्षेत्र में जान-माल की तो कोई हानि नहीं हुई, लेकिन प्राकृतिक संसाधन जैसे जलस्रोतों ने अपना रास्ता बदल दिया। जिसकी मार ‘घुत्तू गंधक पानी’ पर भी पड़ी।हालात इस कदर हैं कि न तो लोग इस चश्मे की नियत समय में मरम्मत का काम कर पा रहे हैं और न ही सरकार कोई खास कदम उठा रही है।  कुल मिलाकर वन कानूनों के कारण ‘घुत्तू गंधक पानी’ का चश्मा भविष्य में अपने प्राकृतिक स्वरूप में आएगा कि नहीं,यह अहम सवाल है।

     

     

 

 

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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