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तक धिनाधिनः पौड़ी के सिलोगी में पानी की कहानी, बच्चों की जुबानी

स्कूल से आकर हम खाना नहीं खाते, पहले पानी लेने जाते हैं। सुबह की चाय पीने से पहले स्रोत का एक चक्कर लगा लेते हैं। एक चक्कर का मतलब तीन किमी. से ज्यादा, वो भी डेढ़ किमी. से ज्यादा का फिसलन भरा कच्चा ढाल और इतनी ही सीधी चढ़ाई। बारहवीं की छात्रा निकिता सिलस्वाल कहती हैं कि हमारी लाइफ का सबसे बड़ा स्ट्रगल पानी के लिए है। मैं कुछ समय पहले ऋषिकेश गई थी, वहां नलों को खुला छोड़कर पानी बर्बाद होता देखा है, मुझे यह देखकर बहुत बुरा लगा। मैं समझ गई कि पानी इनके लिए शायद उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना हमारे लिए। क्योंकि हमें पानी इतनी आसानी से नहीं मिलता, उसके लिए संघर्ष करना पड़ता है।

मानवभारती प्रस्तुति तक धिनाधिन की टीम रविवार को पौड़ी गढ़वाल जिले के द्वारीखाल ब्लाक के सिलोगी कस्बे में थी। यहां युवाओं, बच्चों और बुजर्गों से हमारी मुलाकात हुई। हम उन बुजुर्गों से मिले, जिन्होंने 60 के दशक में सिलोगी इंटर कालेज से मैट्रिक किया था और उन बच्चों से भी बात की, जो वर्तमान में हाईस्कूल, इंटरमीडियेट या फिर जूनियर क्लास में पढ़ रहे हैं। बुजुर्गों ने तक धिनाधिन के साथ अपनी पुरानी यादों को ताजा किया और बच्चों ने अपनी बातों को। कुल मिलाकर हमने सिलोगी की कहानी को पानी, पानी और बस पानी के इर्द गिर्द महसूस किया।

1957 में सिलोगी कॉलेज से मैट्रिक 80 वर्षीय जगदीश प्रसाद सिलस्वाल कहते हैं कि उस समय भी पानी का संकट था और आज भी यही स्थिति है। बच्चे हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करते थे, पानी लाने के लिए उसी स्रोत पर जाते थे, जहां आज पूरा सिलोगी जाता है। पानी के मामले में तो हालात नहीं सुधरे।

सिलोगी मुख्य बाजार में किसी मैदानी कस्बे की तरह ज्यादा दुकानें और चहल पहल नहीं है। यहां लगभग 800 की आबादी होगी। यह इलाका किसी हिल स्टेशन की तरह ख्याति पा सकता है, क्योंकि यह ओबाहवा और नैसर्गिक नजारों के लिहाज से मसूरी से कम नहीं है। हमने यहां एक दिन और एक रात के स्टे में यह महसूस किया।

रविवार सुबह छह बजे डोईवाला से चलकर करीब पौने सात बजे ऋषिकेश बस स्टैंड पहुंचे। संयुक्त यातायात बस स्टेशन से सुबह आठ बजे सिलोगी के लिए बस रवाना हुई। बस हमारे पहुंचने से पहले ही फुल थी। हमने आसपास टैक्सी स्टैंड पर पूछताछ की तो मालूम हुआ कि टैक्सी नौ बजे से पहले नहीं मिलेगी। दूसरी बस पूर्वाह्न 11 बजे रवाना होगी। थक हारकर हम 28 सीटर बस में सवार 40 यात्रियों की भीड़ में शामिल हो गए।

इन दिनों यात्रा सीजन चल रहा है और ऋषिकेश से लेकर तपोवन तक का सफर बिना जाम में फंसे पूरा हो जाए, ऐसा नहीं हो सकता। मुनिकी रेती की तंग सड़क और जाम से बचने के लिए बस बाइपास की ओर बढ़ी। बाइपास पर जाम के झाम ने ऐसा कमाल दिखाया कि बस स्टैंड से तपोवन तक का सफर 40 मिनट में पूरा हुआ। हमें तो 56 किमी. की यात्रा करनी थी।

खैर कोई बात नहीं, हम इस यात्रा में इसलिए भी बेचैन नहीं हुए, क्योंकि ऋषिकेश से लेकर तपोवन तक की यात्रा का यह हाल वर्ष 1997 से देख रहा हूं, जब एक समाचार पत्र में रिपोर्टर था। अगर कुछ बदला है तो तंगहाल रोड के दोनों ओर का नजारा, जहां इन दिनों होटल, अपार्टमेंट और काम्पलेक्स उगा दिए गए हैं। शायद इनकी जरूरत होगी।

गंगा पर बने पुल को पार करके हम घट्टू घाट, गरुड़ चट्टी, फूल चट्टी, मोहन चट्टी होते हुए सिलोगी के सफर पर आगे बढ़ रहे थे। बस में खड़े खड़े पैर दुखने लगे। एक बार तो सोचा कि हम वहां क्यों जा रहे हैं। इससे अच्छा तो मसूरी जाते। पर सिलोगी जाने का फैसला ज्यादा अच्छा था, इसका अहसास वहां जाकर हुआ। यही कुछ सोचते समझते आगे बढ़ रहे थे। इस रूट पर पर्यटकों की गाड़ियों की लाइनें मिलीं। गंगा में रंग बिरंगी राफ्टें ऋषिकेश की ओर आगे बढ़ती दिखीं। जैसे जैसे बस आगे बढ़ रही थी, वैसे-वैसे कुछ न कुछ अलग दिख रहा था।

बस में सफर जारी था और अब गंगा की जगह की हिंवल नदी दिखने लगी। हिंवल गंगा की सहायक नदी है, जिसके तट स्थाई और अस्थाई कैंपिंग से गुलजार दिख रहे हैं। हिंवल पर कैंपिंग का नजारा कई किमी. तक दिखा। बार- बार यही सोच रहा था कि अगर सीट पर, वो भी खिड़की की तरफ बैठने का मौका मिल जाता तो सफर और भी शानदार होता। यहां तो खड़े होकर सफर करना है, जिसका नियम है कि धक्कों के साथ कभी बस के दरवाजे तक पहुंचो और फिर धक्कों के साथ ही आखिरी सीट तक। बाहर का दीदार करना है तो गर्दन नीचे करके खिड़की से झांको। कंडक्टर भी नई सवारियां मिलते ही पीछे जाओ, पीछे जाओ… के निर्देश देता। और कितना पीछे जाऊं, बस से बाहर निकल जाऊं, एक सवारी ने सब्र टूटने पर यह सवाल करने की हिम्मत जुटा ही ली।

जैसे ही किसी स्टैंड पर बस रूकती। इस उम्मीद के सहारे बाहर देखते कि कोई उतरेगा और सीट मिल जाएगी। बिजनी तक तो ऐसा अवसर नहीं मिला। बस आगे बढ़ती गई। एक तरफ पहाड़ और दूसरी तरफ खाई। आखिरकार सीट मिल ही गई और सड़क के दोनों ओर कहीं ऊंचाई पर और कहीं बहुत नीचे बसे गांवों को देखा। रास्ते में स्कूल भवन भी दिखाई दिए। दूर पहाड़ पर नजर आ रही सड़कें देखकर तो मैं सोच रहा था कि कितनी मेहनत की होगी, इन सड़कों को बनाने में। मुख्य सड़क से गांव तक जाने के पगडंडीनुमा रास्ते दूर से ही दिख रहे हैं। मुझे तो चढ़ाई वाले रास्ते देखकर घबराहट हो जाती है।

ऋषिकेश से यहां तक तापमान में कमी महसूस हुई और गर्मी से राहत मिली। गैंडखाल, कठूड़बड़ा, जाखणीखाल होते हुए सिलोगी पहुंचे। यहां कस्बे से होते हुए आबादी वाले हिस्से की ओर रवाना हुए। यहां अपने मित्र गुरुकुल प्ले स्कूल के संचालक हेमचंद्र रियाल से मुलाकात हो गई। रियाल जी हमारा ही इंतजार कर रहे थे। हम उनके आमंत्रण पर ही सिलोगी आए थे। हम बच्चों, युवाओं और बुजुर्गों को सुनने और कुछ अपनी सुनाने आए थे।

हम निकिता और उनकी छोटी बहन नेहा सिलस्वाल से मिले। निकिता 12वीं और नेहा दसवीं की छात्रा हैं। उनका छोटा भाई अखिलेश क्लास छह में पढ़ता है। ये तीनों घर के पास ही राजकीय इंटर कालेज, सिलोगी में पढ़ते हैं। यह कॉलेज 1926 से चल रहा है। इस ऐतिहासिक कॉलेज के अतीत और वर्तमान पर भी बात करेंगे। निकिता उत्तराखंड बोर्ड से हाईस्कूल में निकिता ने 79 परसेंट मार्क्स स्कोर किए हैं, वो भी तब जब उनका अधिकतर समय पानी ढोने में ही बीत जाता है। नेहा ने हमें बताया कि यहां पानी के दो स्रोत हैं, एक तो जंगल में (बड़ेथ का स्रोत) और दूसरा मुख्य सड़क के किनारे। मुख्य सड़क पर हैंडपंप है, जो कस्बे से लगभग दो किमी. दूर है। दोनों स्रोतों पर लंबी लाइन लगती है। देर शाम को अधिकतर लोग हैंडपंप से ही पानी लाते हैं। यहां से गाड़ियों में भी पानी लाया जा सकता है।

हमने जंगल में बड़ेथ के स्रोत तक जाने का निर्णय लिया। करीब दस साल के अखिलेश दो खाली बोतल और हम पांच किलो की एक कैन लेकर स्रोत की ओर रवाना हुए। अखिलेश हमसे आगे आगे तेजी से स्रोत की ओर बढ़ रहे थे। मैंने सोचा इस बच्चे ने हमें हरा दिया। अखिलेश ने कहा, अंकल जी देखकर नीचे उतरना। चीड़ की पत्तियों से फिसलन होती है। हमने कहा, ठीक है, पर दोस्त धीरे-धीरे आगे बढ़ो। रियाल जी ने कहा, रास्ते पर देखना, इधर, उधर खाई की तरफ देखोगे तो सिर घूम जाएगा। मैंने पूछा, रास्ता कहां है। वो बोले, पेड़ों की जड़ों ने पत्थरों को कसकर थामा है, जिससे बेतरतीब सी सीढ़ी बन गई, यही तो रास्ता है। ढाल पर उतरना इतना कठिन है तो चढ़ाई में तो जान ही निकल जाएगी।

बार-बार सोच रहा था कि स्रोत देखने के लिए नीचे तो जा रहा हूं, पर चढ़ूंगा कैसे। रियाल जी ने बताया कि ये बच्चे और महिलाएं दिन में पांच-पांच चक्कर लगाते हैं स्रोत के, वो भी दोनों हाथों में पांच-पांच किलो के कैन लेकर। वाकई पहाड़ के जीवन में कितनी चुनौतियां हैं। हम स्रोत पर पहुंचे, वहां धनंजय, निकिता और सिमरन व कृष्णा मिले। यहां दो जगह से पानी आ रहा है, एक पर कपड़े धोए जा रहे थे और एक स्रोत पर लगे पाइप से कैन भरे जा रहे थे।

हमने निकिता और सिमरन से पूछा, बेटा एक दिन में स्रोत के कितने चक्कर लगाते हो। उन्होंने बताया कि वो तो दो-तीन बार यहां आ जाते हैं। पढ़ाई कब करते हो, इस पर उनका कहना था कि पानी इकट्ठा करने के बाद ही पढ़ाई का समय मिल जाता है। वैसे हैंडपंप से भी पानी मिल जाता है। धनंजय ने कहा, अगर हैंडपंप खराब हो जाए तो फिर यही स्रोत है, जिस पर पूरा सिलोगी निर्भर है। कृष्णा ने बताया कि सुबह पांच बजे से लोग यहां आना शुरू कर देते हैं। आसपास के गांवों से भी लोग पानी लेने आते हैं। दिन में तीन-चार चक्कर लग जाते हैं पानी के लिए। तभी रियाल जी ने कहा, इतने चक्कर लगते हैं कि लोगों ने गिनती करना ही छोड़ दिया।

स्रोत का ठंडा पानी पिया और कैन व बोतलें भरकर वापस सिलोगी की ओर चढ़ाई शुरू की। मैं तो बीच में कम से कम पांच बार बैठा। तीन बार पानी पीया होगा। अखिलेश ने कहा, पानी यहीं पी लोगे तो घर क्या लेकर जाओगे। इस पर सभी हंसने लगे। हां, मौसम ने मेरा साथ दिया। ठंडी हवा पसीने को टिकने नहीं दे रही थी। मैं सबसे पीछे रह गया, पर सिलोगी पहुंच ही गया। ठंडी हवा ने बहुत साथ दिया और कुछ देर में राहत महसूस कर रहा था। वनों से घिरे सिलोगी की आबोहवा ही कुछ ऐसी है कि थकान ज्यादा देर हावी नहीं रही। मुझे तो लगा कि मेरी डायबिटीज किसी दवा या परहेज से नहीं, यहां स्रोत के चक्कर लगाने और इस शानदार आबोहवा में रहकर दूर हो जाएगी।

स्रोत तक जाने और वहां से आने की यात्रा में मेरी हालत का जिक्र हुआ तो बच्चे खूब मजे लेकर हंसे। यह तो उनके लिए कोई बड़ा काम नहीं है, क्योंकि पानी के लिए संघर्ष उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया है। ठीक उसी तरह जैसे हम शहर में रहने वालों के लिए बिना सोचे समझे पानी को यूं ही बहा देना। नेहा बताती हैं कि घरेलू कामकाज, अपने पीने और पशुओं के लिए पानी लाते हैं। समारोह या किसी आयोजन के लिए बाहर से पानी के टैंकर मंगाए जाते हैं।

बच्चों के साथ तक धिनाधिन में भी पानी के संकट का जिक्र हुआ। हमें पता चला कि निकिता ने तो प्रधानमंत्री को भी पत्र लिखा था। सिलोगी के ये बच्चे पानी के संकट को दूर होता देखना चाहते हैं। तक धिनाधिन में हमारे साथ शामिल हुए सेवानिवृत्त रामानंद सिल्सवाल जी, शिक्षिका सरला सेमवाल, हेमचंद्र रियाल ने शिक्षकों और छात्र-छात्राओं के बीच नॉलेज शेयरिंग पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि हम भी बच्चों से बहुत कुछ सीखते हैं। देहरादून के एक स्कूल में टीचर सरला सेमवाल ने कहा, मुझे बच्चे हेलो, ब्यूटीफुल टीचर कहकर पुकारते हैं। मैंने पूछा, आप मुझे ब्यूटीफुल टीचर क्यों कहते हो, बच्चों का जवाब था, मैम आप हम सबसे बहुत स्नेह करती हो। इसलिए आप हमारे लिए बहुत अच्छी और सुन्दर हो।

तक धिनाधिन में बच्चों ने पेड़ घूमने क्यों नहीं जाता, सवाल पर मजेदार जवाब दिए। क्लास 7 के आयुष भट्ट ने कहा, पेड़ घूमने के लिए नहीं, एक जगह खड़े होने के लिए बने हैं। उनके पैर नहीं होते। क्लास 4 के अभय बोले, पेड़ों की जड़ें मिट्टी से जकड़ी होती हैं। दसवीं की छात्रा नेहा सिलस्वाल ने कहा, पेड़ हमें आक्सीजन देते हैं, उनसे छाया मिलती है। वो घूमने चले गए तो हमें उनके पीछे-पीछे जाना पड़ेगा। हमने बच्चों को पेड़ घूमने क्यों नहीं जाता, कहानी सुनाई।

तितली और फूल की दोस्ती पर एक कहानी सुनाई,जिसमें दोनों एक दूसरे के साथ खेलते हैं और एक दूसरे से अपने रंगों को साझा करते हैं। क्लास 12 की छात्रा भावना सेमवाल ने अपनी टीचर को लिखे पत्र का जिक्र किया, जिसमें उन्होंने लिखा था कि टीचर उनके लिए बेस्ट क्यों हैं। क्लास 6 के अखिलेश ने संत और उनके शिष्य की कहानी सुनाई, जिसमें शिष्य को जीवन में बदलाव लाने की प्रेरणा देते हैं। उन्होंने बूढ़ी मां और बादल की भी कहानी सुनाई। तक धिनाधिन में क्लास 10 की मीनाक्षी भट्ट, क्लास 3 की तमन्ना, क्लास 7 के अमित सेमवाल, क्लास 2 के अभिनव आदि शामिल हुए।

अगली बार, सिलोगी के राजकीय इंटर कालेज की कहानी बुजुर्गों की जुबानी, साझा करेंगे। तब तक के लिए आप सबको शुभकामनाओं और बहुत सारी खुशियों का तक धिनाधिन। सिलोगी के उन बच्चों और युवाओं को दिल से सलाम, जो पानी के लिए संघर्ष कर रहे हैं और पढ़ाई में भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं। इस यात्रा को सार्थक पांडेय क्लास 9 ने कैमरे से कवरेज किया।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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