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तक धिना धिनः वाकई कमाल का था यह भ्रमण

रविवार को अचानक मन हुआ कि कहीं घूमने चला जाए। कहां जाएं, यह सोचना बाकी था। घर से निकलते ही कुछ ही देर में तय कर लिया कि खैरी गांव के पास माता नलों वाली देवी के मंदिर जाते हैं। जहां पानी के बहुत सारे स्रोत हैं। 45 वर्ष का हो गया हूं, लेकिन घर से मात्र छह किमी. दूर स्थित मां नलों वाली देवी के मंदिर आज पहली बार गया। यह बिल्कुल भी नहीं सोचा था कि माता के दर्शन के बाद हमें वन गुर्जरों और उनके बच्चों के साथ कुछ समय बिताने, उनसे बातचीत करने का मौका मिलेगा। हमने बच्चों की कविताएं सुनीं, उनकी चित्रकारी को देखा और उनसे फिर मिलने का वादा किया।

मैं और बेटा सार्थक लच्छीवाला वन रेंज के तहत खैरी वनवाह गांव पहुंचे। खैरी रेलवे फाटक के पास ही लगा बोर्ड माता नलों वाली देवी के मंदिर का रास्ता दिखा रहा था। वन विभाग की चौकी के सामने और रेलवे लाइन के समानांतर जंगल के कच्चे रास्ते से होते हुए मंदिर पहुंच गए। मंदिर के मुख्य द्वार की ओर जाने वाले कच्चे रास्ते के दोनों ओर कतारबद्ध पेड़ मानों सभी का स्वागत करते हैं।

मंदिर में प्रवेश करते ही हमें परिचित सुरेश मिल गए। सुरेश ने हमें माता नलों वाली देवी और श्री जाहर वीर गोगा जी के दर्शन कराए। वहां डोईवाला के बब्बल जी, खैरी के ही हयात जी से मुलाकात हुई। हमने पूछा कि माता को नलों वाली देवी क्यों कहा जाता है। पता चला कि यहां नलों काफी उगते हैं। नलों क्या, हमारा सवाल था। सुरेश से मिले जवाब ने मुझे बचपन में लौटा दिया। पौरे, जिनकी कलम बनाकर मैंने पांचवीं तक पढ़ाई की थी, उनको स्थानीय लोग नलों कहते हैं। मुझे याद है कि एग्जाम से एक दिन पहले हमें एक पौरा, स्याही की चार बट्टी और स्याही सोख्ते दिए जाते थे। पौरे को घटकर दो कलमें बनाई जाती थीं, एक से केवल हेडिंग लिखी जाती थी।

हमें मंदिर के पास बहुत सारे जल स्रोत दिखाए गए। गूलर का विशाल पेड़, जिसे करीब तीन सौ साल पुराना बताया जाता है, की जड़ से काफी पानी निकल रहा था। थोड़ी दूर पर ही जल के कई और स्रोत दिखे। इनमें छोटी-छोटी मछलियां दिखाई दीं। कई तरह के कीट पतंगें वहां जी रहे हैं। कुछ ऐसे पक्षी भी दिखाई दिए, जिनसे मैं अब तक अंजान रहा हूं। मुझे नहीं पता, इन पक्षियों के नाम क्या हैं। यह सबकुछ जैवविविधता का संसार है, भले ही बहुत छोटा ही क्यों न हो।

स्रोतों के पास हराभरा देखकर मैंने पूछा तो सुरेश ने बताया कि यह सुसुवा का साग है, लेकिन अब यह सुसुवा के तटों पर कम ही उगता है। सुसुवा नदी प्रदूषित हो गई है, इसलिए ऐसा हो रहा है। स्रोतों के पास ज्यादा साग इसलिए दिख रहा है, क्योंकि यहां पानी स्वच्छ है। यह पानी यहां से करीब दो किमी. चलकर सुसुवा नदी में मिल जाएगा। सुसुवा अपने साथ देहरादून शहर का कूड़ा कचरा लेकर आ रही है। हम उस स्थान पर भी गए, जहां बहुत सारे स्रोतों की धारा और सुसुवा नदी मिलते हैं। यहां धारा के किनारे- किनारे साग दिखाई दिया, लेकिन सुसुवा के किनारों पर नहीं। इससे मालूम हो गया कि सुसुवा के तटों से साग क्यों गायब हो रहा है।

खैर, वन गुर्जरों से मिलने का मौका मिला। जल स्रोतों वाली धारा इनके डेरों से होते हुए ही सुसुवा में मिलती है। इस नहर को पार करके अपने घरों तक पहुंचने के लिए वन गुर्जर परिवारों ने लकड़ी के कच्चे पुल बनाए हैं, जिन पर चलते हुए मुझे नहर में गिरने का डर लगा, लेकिन मैंने बच्चों को इन पुलों पर दौड़ते देखा। यह तो उनका रोज का काम है। पशुपालन और खेती वन गुर्जरों की आजीविका के स्रोत हैं। इनके पास गाय, भैंस बड़ी संख्या में हैं, जो आसपास मैदानों और जंगलों में चरते हैं। पशुओं की देखरेख में ही सुबह से शाम हो जाती है।

वन गुर्जरों के पास खेती की भूमि भी है। इन दिनों गेहूं उग रहा है। खेती में ज्यादातर गोबर की खाद ही इस्तेमाल करते हैं, ऐसा हमने गेहूं की फसल देखकर अंदाजा लगा लिया। गेहूं का इतना ऊंचा पौधा मैंने कम ही देखा है। गुलाम रसूल बताते हैं कि थोड़ा बहुत बाजार की खाद भी लगाते हैं। इतना ऊंचा पौधा उगने की वजह साफ पानी भी है। जल स्रोतों वाली धारा का पानी मोटर से लिफ्ट करके सिंचाई करते हैं। कुल मिलाकर इसको जैविक खेती कहें तो ज्यादा बेहतर रहेगा, क्योंकि इसकी सिंचाई शहरभर का मैला ढोकर ला रही नहरों से नहीं होती। हालांकि रसायन इसमें भी मिलता है, चाहे थोड़ा ही क्यों न हो। यहां धान की फसल नहीं उगाई जाती, क्योंकि बरसात में फसल को नुकसान पहुंचना तय है। वैसे भी सालभर जंगली जानवर फसल को नुकसान पहुंचाते रहे हैं। यहां गारे और पत्थर से बने कच्चे घरों को फूल पत्तियों वाले कलरफुल डिजाइन से आकर्षक बनाया गया है। ईशा के घर में अतिथियों के लिए बनाए कमरे की सजावट ने हमें बहुत लुभाया। उनकी बेटी, जिसने दसवीं पास करने के बाद पढ़ाई छोड़ दी है, ने दीवार पर चित्रकारी की है, वो भी अपने भाई के चित्रकला वाले रंगों से। उसका भाई शराफत पांचवीं का छात्र है।

हमने एक साथ खेलते बच्चों की टोली को देखा तो उनसे बात करने से खुद को रोक नहीं पाए। हमें याकूब, खतीजा, इमरान, शराफत, नफीस ने कविताओं पर अभिनय करके दिखाया। बच्चों को हमने हाथी पहने पेंट और हथिनी पहने मैक्सी, निकल पड़े वो खुली सड़क पर ढूंढने लगे वो टैक्सी, टैक्सी में ड्राइवर बंदर…. कविता सुनाई। बच्चों से हमने वादा किया कि जल्द ही उनको कहानियां सुनाने आएंगे। कुछ उनकी सुनेंगे और कुछ अपनी सुनाएंगे। तब तक के लिए उनसे विदा लेकर हम फिर लौट आए अपने घर की ओर….।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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