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जर्नलिज्म का रियल टाइम-1

टेक्नोलॉजी के बिना जर्नलिज्म नहीं हो सकती। टेक्नोल़ॉजी ने दूसरे दिन का इंतजार कराने वाली जर्नलिज्म को रियल टाइम रिपोर्टिंग (आरटीआर) तक पहुंचा दिया,जिसमें केवल क्लिक की देर है। अगर अखबार के दफ्तर में सर्वर कुछ मिनट के लिए डाउन हो जाए तो बेचैनी बढ़ जाती है।

उस अखबार की एडिटोरियल टीम और आईटी डिपार्टमेंट में ईमेल पर ईमेल का खेल तब तक चलता है, जब तक कि सर्वर पर फाइलें संतुष्टि के स्तर तक तेजी से डाउनलोड .या अपलोड न होने लग जाएं। रिपोर्टर से कहा जाए कि एक दिन के लिए ही सही अपने से फोन को दूर रखना या फोन से व्हाट्सएप हटा दो। एक दिन ईमेल के इनबॉक्स को मत देखना। दूसरे दिन उस रिपोर्टर की स्थिति क्या होगी, एक या दो या फिर उसकी बीट की अधिकतर खबरें मिस होंगी।

1996 की बात है, मैं जिस अखबार में काम करता था, उसके देहरादून स्थित दफ्तर में फोटो भेजने के लिए स्कैनर इंस्टाल किया गया। मैंने स्कैनर पहली बार देखा था। हम सभी बहुत खुश थे, क्योंकि अब देर शाम के फोटो भी दूसरे दिन के अखबार में दिखेंगे। इससे पहले अपराह्न दो बजे से पहले के ही फोटो मेरठ के अखबारों में दिख पाते थे।

सबसे ज्यादा राहत मिली फोटोग्राफरों को, जो ब्लैक एंड व्हाइट फोटो दफ्तर में ही बने डार्करूम में खुद ही डेवलप करते थे। कलर फोटो के लिए रील फोटो स्टूडियो भेजते थे। यह सब करने के लिए उनको बहुत फुर्ती दिखानी पड़ती थी। स्कैनर की बदौलत मेरठ वाला अखबार देहरादून के स्थानीय अखबारों को टक्कर देने लगा।

उस समय मीडिया को सूचना या बयान के लिए विज्ञप्तियों का दौर चरम पर था। बतौर ट्रेनी मेरा काम विज्ञप्तियों को इकट्ठा करना, उनकी छंटाई करना, कम महत्व की या कार्यक्रमों की विज्ञप्तियों को खबर की शक्ल लेना, उनमें दर्ज एक-एक नाम को लिखना था। इसके लिए मुझे राइटिंग पैड दिया गया था।

खबरों को उनके महत्व के हिसाब से बड़ा या छोटा किया जाता था। हमने उन लोगों को भी चिह्नित किया था, जो रोजाना विज्ञप्तियां जारी करते थे। उनके लिए व्यवस्था थी कि सप्ताह में एक दिन स्थान दिया जाए।

एक-एक लाइन की चेकिंग के बाद ही खबरों को कंप्यूटर सेक्शन में टाइपिंग के लिए भेजा जाता था, जहां से खबरें सीधे मेरठ भेजी जाती थीं। वहां डेस्क पर खबरों का एक बार फिर संपादन होता था।

विज्ञप्तियों के बंडल बहुत संभाल कर स्टोर रूम में रखे जाते थे। इस पूरी व्यवस्था में मोबाइल फोन कहीं नहीं था। व्हाट्सएप का नाम किसी ने भी नहीं सुना था। ईमेल और गूगल पर सर्च की मैंने तो कभी कल्पना नहीं की थी। मैं केवल दफ्तर के लैंडलाइन तक सीमित था। बाद में फैक्स पर भी विज्ञप्तियां आने लगीं।

गढ़वाल के पर्वतीय जिलों के रिपोर्टर मुख्यालयों को फैक्स या फिर डाक गाड़ी से खबरें भेजते थे। पर्वतीय जिलों की खबरें ऋषिकेश में इकट्ठी होती थीं, जहां कंप्यूटर पर टाइप होकर मेरठ भेजी जाती थीं। ऋषिकेश में संपादन के बाद ही खबरों को मेरठ भेजा जाता था। ऐसे में कई खबरें छप ही नहीं पाती थीं।

वर्तमान में गढ़वाल के हर दफ्तर में सीएमएस (कंटेंट मैनेजमेंट सिस्टम) इंस्टाल है। सोशल मीडिया के जरिये फोटो और वीडियो मिनट से पहले पूरी दुनिया में लाइव होते हैं। रियल टाइम रिपोटिंग मीडिया की सबसे बड़ी ताकत है और पूरी जद्दोजहद इसी को लेकर है।

वर्तमान की बात करते हैं। अब विज्ञप्तियां ईमेल या फिर व्हाट्सएप पर हैं। खबरों को कॉपी करके सीधा सीएमएस (कंटेंट मैनेजमेंट सिस्टम) पर पेस्ट कीजिए। ईमेल और व्हाट्सएप पर कंटेंट यूनीकोड में होता है, जो सीएमएस के मुफीद है,इसलिए फॉंट कनवर्ट करने का भी झंझट नहीं है।

सिस्टम पर ही हेडिंग दीजिए और करेक्शन करके सीधे डेस्क के हवाले कीजिए। यहां तेजी से काम हो रहा है, खबरों की संख्या भी बढ़ गई पर सीखने का मौका गायब हो गया। स्पीड के चक्कर में यहां किसी के पास न तो सीखने का समय है और किसी के पास सिखाने का। जो आता है या जो नहीं भी आता, सब कुछ डेस्क के हवाले कर दो।

1996 में फोन से पहले कुछ वरिष्ठ पत्रकारों को अखबारों ने पेजर उपलब्ध कराए थे, जिनके नंबर तीन डिजीट में होते थे। फील्ड में रहने के दौरान किसी रिपोर्टर को कोई सूचना देनी है तो लैंडलाइन फोन के माध्यम से पेजर पर मैसेज भिजवा दो। पेजर वर्तमान के मैसेंजर की भूमिका में था।

पेजर का समय चला गया तो महंगी कॉल दरों वाले मोबाइल कुछेक पत्रकारों की पहुंच में थे। मोबाइल ने पत्रकारिता में बड़ा बदलाव किया। सूचनाएं तेजी से मिलने लगीं।

इतना जरूर था कि फोटोग्राफर और रिपोर्टर को मौके पर जाना पड़ता था। रिपोर्टर तो बाद में पहुंचकर पूछताछ करके घटना को कवर कर सकते थे, पर फोटोग्राफर के लिए कोई चांस नहीं होता था। अब हर जेब में कैमरा है और फोटो, वीडियो को कहीं भी, कभी भी भेजने की सुविधा भी।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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