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महाशिवरात्रि पर विशेषः उत्तराखंड के ओंकारेश्वर मंदिर में पांच केदारों का वास

  • ललित मोहन कोठियाल

कल महाशिवरात्रि है और इसी दिन उत्तराखण्ड के रुदप्रयाग जिले के ऊखीमठ में ओंकारेश्वर मन्दिर में केदारनाथ की गद्दी से मन्दिर के कपाट खुलने का दिन तय होता है। यह मन्दिर ही केदारेश्वर एवं मध्यमहेश्वर का शीतकालीन प्रवास है यहीं से केदारनाथ एवं मध्यमहेश्वर मन्दिर के कपाट खुलने व बंद होने के अवसर पर केदार एवं मध्यमहेश्वर की उत्सव डोली ग्रीष्मकालीन एवं शीतकालीन प्रवास के लिये जाती एवं आती है। मध्यमेश्वर को द्वितीय केदार माना जाता है। कहा यह जाता है कि यहां पर पांचों केदारों का वास है। यह मन्दिर मध्यप्रदेश में अवस्थित उस ओंकारेश्वर मन्दिर से अलग है जो नर्मदा के तट पर मान्धाता नामक स्थान पर बसा है और द्वादस ज्योर्तिलिंगों में एक है।

ऊखीमठ का नाम ऊषा से निकला है। स्कन्दपुराण में इस बारे में जो वर्णन मिलता है उसके अनुसार दैत्यराज बाणासुर की पुत्री ऊषा रात्रि स्वप्न में एक नवयुवक को देख उसका वरण कर लेती है। यह बात वह अपनी निकटतम सहेली चित्रलेखा को बता कर मनोभावों के आधार चित्र बनवाती है और वास्तविक जीवन में उसे ही जीवनसाथी बनाने की बात करती है। चित्र बनने पर ज्ञात होता है वह युवक और कोई नहीं श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध हैं। यह बात ऊषा अपने पिता को बताती है तो वे क्रुद्ध हो उठते हैं। उधर अनिरुद्ध को जब यह पता चलता है तो वह उसके बारे में जानने को वहां चले आते हैं। इस पर बाणासुर उनको बन्दी बना देता है। द्वारिका में श्रीकृष्ण को पता चलने पर कि अनिरुद्ध बंदी बना दिए गए हैं मुक्त कराने यहां आते हैं। इस पर शिवभक्त बाणासुर और उनके बीच एक अनिर्णायक संग्राम छिड़ जाता है। इसका अन्त न होते देख चिंतित ऊषा शिव की तपस्या में लीन हो जाती है। अन्त में शिव प्रकट होकर इस संग्राम को रुकवा कर दोनों पक्षों के बीच सुलह करा कर उनके मध्य विवाह का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार यह स्थान शिव की प्राकट्यस्थली बनता है।

वहीं वैदिक साहित्य में ओंकारेश्वर को लेकर भी एक प्रसंग भी है जिसका सम्बन्ध मान्धा से है। इस कारण ऊखीमठ का एक नाम मान्धाता भी था। यद्यपि आज यह नाम प्रचलित नहीं है किन्तु आज भी केदारनाथ की बहियों का प्रारम्भ जय मान्धाता से होता है। इस बारे में स्कन्द पुराण के केदारखण्ड के 19 वें अध्याय में मिलता है। इसके अनुसार सतयुग के प्रतापी राजा कुवलाशव की पांचवी पीढ़ी में राजा यौवनाश्व की सौ कन्याएं थी पर पुत्र न हुआ। पुत्र प्राप्ति हेतु कुलगुरु के कहने पर वे पुत्रोष्ठी यज्ञ कराते हैं। यज्ञ संपन्न कराने पर राजा को अभिमंत्रित जलकलश प्राप्त होता है। लेकिन रात्रि को प्यास लगने पर वे अज्ञानतावश रानियों को पिलाये जाने वाले अभिमंत्रित जल को स्वयं ग्रहण कर लेते हैं। इस जल के प्रभाव से राजा यौवनाश्व की छाती फट जाती है और पुत्र का जन्म होता है। माँ की कोख से पैदा न होने के कारण ही बालक का मान्धाता नाम हुआ जो बाद चक्रवर्ती सम्राट बनते हैं।

सुखपूर्वक राज्य को चलाने के बाद वानप्रस्थ की दशा आने पर राजा मान्धाता हिमालय की गोद में शिव की तपस्या में लीन हो जाते हैं। जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें ओंकारेश्वर रूप में दर्शन देते और वरदान मांगने को कहते हैं। राजा मान्धाता शिवजी से विश्व कल्याण व भक्तों के उद्धार के लिए इसी स्थान परं निवास करने का अनुरोध करते हैं। तब से लेकर वर्तमान समय तक भगवान शिव यहीं पर ओंकारेश्वर रूप में विराजित हैं। इस स्थान को मान्धाता भी कहा गया है। हालांकि लगभग यही बात मध्यप्रदेश में पड़ने वाले द्वादस ज्योर्तिलिंगों में से एक ओंकारेश्वर मन्दिर से भी जुड़ी है जो नर्मदा के किनारे मान्धाता नामक स्थान पर बसा है।

मन्दिर में अनादि काल से पूजा अर्चना होती आई है। माना जाता है कि वर्तमान मन्दिर पुराने मन्दिर के स्थान पर बनाया गया। यह मन्दिर आस-पास बने दूसरे शिव मन्दिरों के सापेक्ष नया है हांलाकि यह दूसरे मन्दिरों के सापेक्ष बहुत विशाल नहीं है। दूसरे मन्दिरों की तरह से इसमें कोई मण्डप नहीं है। मन्दिर का शिखर काष्ठ छत्र युक्त है और उत्तर भारत की नागर शैली का है। उत्तराखण्ड के दूसरे मन्दिरों की तरह ही इसमें इस क्षेत्र की शैली यानि काष्ठ जंगले युक्त छत है। मन्दिर में शिव के अलावा ऊषा, अनिरुद्ध और मान्धाता की मूर्तियां हैं। एवं विवाह वेदिका है। समीप मे भैरव मन्दिर है। ऊखीमठ बाजार से डेढ़ किमी पहले एक अलग मार्ग मन्दिर तक जाता है।

उत्तराखंड में स्थित श्री मध्यमहेश्वर मंदिर

मन्दिर में शिवजी की 6 माह तक ओंकारेश्वर के रूप में निरन्तर पूजा होती है किन्तु शीतकालीन प्रवास के छह माह तक यहां पर उनकी केदार रूप की पूजा अर्चना होती है। इस कारण से वे श्रद्धालु जो शीतकाल में केदारनाथ जी के दर्शन करना चाहते हैं वे ऊखीमठ आते हैं। परिसर में एक भैरव मन्दिर है। समीप ही केदारनाथ के रावल का निवास व मन्दिर समिति का कार्यालय व दूसरे भवन हैं। मन्दिर के प्रवेश द्वार के जीर्णोद्धार के बाद इसमें काफी निखार आ गया है। परिसर के अन्दर का ज्यादातर हिस्सा अभी पुराना ही है।

केदारेश्वर के अलावा ऊखीमठ का ओंकारेश्वर मन्दिर दूसरे प्रमुख केदार मध्यमहेश्वर की भी शीतकालीन प्रवास स्थली है जहां ठीक उसी प्रकार से डोली यात्रा आती व जाती है जैसे केदारनाथ के लिए। ऊखीमठ से मनसूना होते हुये से 20 किमी. दूर रांसी तक सड़क मार्ग है इससे आगे मध्यमहेश्वर के लिये 20 किमी की पैदल पथ है जिस पर अन्तिम गांव गौंडार है। रास्ता बहुत मनोहारी दृश्यों से परिपूर्ण हैं। मार्ग को तय करने में 8 से 10 घण्टे लग जाते हैं। मध्यमेश्वर में केदारनाथ शैली का एक प्राचीन मन्दिर है। आस पास परिवेश मन्त्रमुग्ध कर देने वाला है। मध्यमेश्वर समुद्रतल से 3400 मी. की ऊंचाई है। रास्ते में रुकने को चट्टियां है। डेढ़ किमी आगे चलकर बूढा मध्यमहेश्वर का मन्दिर है जिसके समक्ष चौखम्बा का भव्य शिखर दिखता है। विश्राम के लिये मन्दिर के समीप में सीमित व्यवस्था है।

ऊखीमठ से 35 किमी. दूर तुंगनाथ है जो तीसरा प्रमुख केदार है। इन्हें तुंगेश्वर भी कहा जाता है। तुंगनाथ में शिव की भुजाओं की पूजा होती है। ऊखीमठ से 30 किमी दूर चोपता से मन्दिर तक तीन किमी पैदल रास्ता जाता है। रास्ता बहुत सुन्दर है जहां मार्ग में वन बुग्याल आदि है। यहां से दो दूसरे स्थलों देवरिया ताल, रुद्रनाथ व कल्पेश्वर के लिये ट्रैक है। कुछ आगे चन्द्रशिला है। तुंगनाथ राज्य के सारे पौराणिक मन्दिरों में सबसे अधिक ऊंचाई 3800 मीटर पर अवस्थित है।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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