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मानवाधिकार के संरक्षण के लिए व्यापक जनजागरूकता की जरूरत

हरिद्वार।  “मानव अधिकारों के संरक्षण में संस्कारों की भूमिका” विषय पर राष्ट्रीय वेबिनार में मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए व्यापक रूप से जन जागरूकता पर जोर दिया गया। वेबिनार के मुख्य अतिथि उत्तराखंड लोक सेवा अभिकरण के अध्यक्ष न्यायमूर्ति यूसी ध्यानी (सेवानिवृत्त) ने कहा कि ‘माता-पिता के संस्कार बच्चे को भविष्य का मार्ग दिखाते हैं। माता-पिता स्वयं मर्यादित और संस्कार वाला जीवन जीयें। माता-पिता युवाओं को संस्कारों की शिक्षा देने वाले प्रथम गुरु होते हैं। संस्कार के बिना मर्यादा वाला जीवन नहीं बन सकता।
उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार एवं मानव अधिकार संरक्षण समिति, मुख्यालय हरिद्वार ने संयुक्त रूप से “मानव अधिकारों के संरक्षण में संस्कारों की भूमिका” विषय पर इस राष्ट्रीय वेबिनार का आयोजन किया। वेद विभाग के डॉ. अरुण कुमार मिश्रा ने मंत्रोच्चारण से वेबिनार का शुभारंभ किया। दस दिसंबर को पूरी दुनिया में मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। दस दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा ने संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा को अंगीकृत किया।
उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलपति प्रोफेसर देवी प्रसाद त्रिपाठी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा कि मानवाधिकार की रक्षा हमारी संस्कृति का अहम हिस्सा है। उन्होने कहा – ‘सर्वे भवन्तु‍ सुखिनः’ की भावना हमारे संस्कारों में रही है।
उन्होंने कहा कि वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे जीवन स्तर को प्राप्त करने का अधिकार है, जो उसे और उसके परिवार के स्वास्थ्य, कल्याण और विकास के लिए आवश्यक है। मानव अधिकारों में आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों के साथ ही समानता एवं शिक्षा का अधिकार आदि भी शामिल हैं।
मानव अधिकार संरक्षण समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष इंजीनियर मधुसूदन आर्य ने कहा कि मानवाधिकार का संबंध समस्त मानव से है। मानव जितना प्राचीन है, उतने ही पुरातन उसके अधिकार भी हैं। इन अधिकारों की चर्चा भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप में शुरू से ही होती आई है, भले ही वर्तमान रूप में मानवाधिकारों को स्वीकृति उतनी प्राचीन न हो, किन्तु साहित्य तथा समाज में मनुष्यों के सदा से ही कुछ सर्वमान्य तथा कुछ सीमित स्थितियों में मान्य अधिकार रहे हैं।
उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलसचिव गिरीश कुमार अवस्थी ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि मानवाधिकार और शिक्षा का एक दूसरे से घनिष्ठ संबंध है। मानवाधिकारों को समाज में स्थापित करने के लिए यह जरूरी है कि मानवीय गरिमा और प्रतिष्ठा के बारे में जन-जागरूकता लाई जाए। जागरूकता और चेतना के लिए शिक्षा ही सर्वाधिक उपयुक्त साधन है, इस दृष्टि से शिक्षा के अधिकार के अंतर्गत ही मानवाधिकारों की शिक्षा भी शामिल है।
मानवाधिकार संरक्षण समिति की राष्ट्रीय महिला अध्यक्ष डॉ. सपना बंसल, दिल्ली विश्वविद्यालय ने कहा कि मनुष्य के रूप में जन्म लेते ही हम सभी सार्वभौमिक मानव अधिकारों के स्वतः अधिकारी हो जाते हैं। यह एक ऐसा अधिकार हे जो जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त सम्मानजनक तरीके से सभी को मिलना चाहिए।
संगोष्ठी का संचालन उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार के छात्र कल्याण अधिष्ठाता डॉ. लक्ष्मी नारायण जोशी ने किया। उन्होंने कहा कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्राचीन संस्कृत साहित्य में ”सर्वेभवन्तुसुखिनः” का उल्लेख मानव अधिकारों की पुष्टि करता है। उन्होंने कहा कि सामान्य रूप से मानवाधिकारों को देखा जाए तो मानव जीवन में भोजन पाने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, उत्पीड़न पर अंकुश, महिलाओं का घरेलू हिंसा और अन्य तरह के उत्पीड़न से संरक्षण, प्रवास का अधिकार आदि को लेकर बहुत सारे कानून बनाए गए हैं, जिन्हें मानवाधिकार की श्रेणी में रखा गया है। मानवाधिकार की शक्ति का सही उपयोग करने के लिए उनकी पर्याप्त जानकारी आम लोगों तक पहुंचाना अत्यंत आवश्यक है।
वेबिनार में मानव अधिकार संरक्षण समिति के एसआर गुप्ता, राजीव राय, अनिल कंसल, कमला जोशी, नीलम रावत, शोभा शर्मा, हेमंत सिंह नेगी, रेखा नेगी, नेहा, उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार से ज्योति कल्पना शर्मा, निवेदिता सिंह, पीयूष गोयल, समीक्षा अग्रवाल, सतीश शेखर, शैली शर्मा, स्वीटी चौहान, वन्दना मिश्रा, विनोद बहुगुणा, रचना शास्त्री, यज्ञ शर्मा, सुभद्रा देवी, अरुण कुमार मिश्रा, अनु चौधरी, अनुपम कोठारी, राकेश कुमार गर्ग, पिंकी रावत, तरुण कुमार पांडे, प्रेमा श्रीवास्तव, डॉ. अभिजीत, मोनु मीना आदि उपस्थित रहे |

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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