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सामाजिक सरोकारों वाले अखबारों में यह किनका विज्ञापन है

अखबार समाज का आइना बनकर पाठकों को वह सब जानकारी और सूचनाएं पहुंचाता है, जो उनके लिए जरूरी होती हैं। सामाजिक बुराइयों को प्रश्रय देने वाले चेहरों को सामने लाकर उनकी इस प्रवृत्ति के खिलाफ लोगों को जागरूक करने का काम भी मीडिया करता रहा है।
मीडिया अक्सर खुद को सामाजिक सराेकार से जुड़ा होने का दावा करता रहा है। वह खुद को व्यवस्थाओं का पालन करने वाला साबित करता है और यदि नियमाें और कानून का उल्लंघन हुआ है, तो उसको सामने लाता है।
महिलाओं की सुरक्षा की बात करते हैं, युवाओं के रोजगार और करिअर पर कैंपेन चलाते हैं।अपराध के खिलाफ जंग लड़ने के लिए जागरूकता के अभियान चलाए जाते हैं।
क्या कोई अखबारों के भीतर के पेजों पर प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों पर नजर दौड़ाएगा, जहां न तो ये सामाजिक सराेकार दिखते हैं और न ही व्यवस्था का उल्लंघन करने वालों पर कोई बंदिश नजर आती है।
सब पैसे का खेल, पैसे दो और भीतर के एक पेज पर कुछ भी छपवाओ, भले ही वो कानूनन सही है या गलत। क्या इस पेज पर एक वैधानिक सूचना छापनेभर से ही मीडिया की भूमिका खत्म हो जाती है।
आइये मेल और फीमेल फ्रैंड्स बनाने के एक विज्ञापन पर नजर डालते हैं। यहां बाकायदा फोन नंबर देकर दोस्त बनाने का काम किया जा रहा है। इस तरह की दोस्ती के लिए गुड लुकिंग होना जरूरी है। पार्ट टाइम बताते हुए पर मीटिंग एक मोटी रकम मिलने की बात कही गई है।
ऐसे ही तमाम विज्ञापन अखबारों में छपे होते हैं। कोई भी समझदार व्यक्ति इसको किस रूप में ले, क्या यह विज्ञापन युवाओं को किसी ऐसे कार्य के लिए प्रेरित नहीं करता, जो समाज की मुख्यधारा से हटकर गर्त में ले जाता है। क्या इसको कानून के दायरे में बताया जा सकता है।
सवाल उठता है कि इस तरह के विज्ञापनों को सामाजिक सराेकारों का दावा करने वाले अखबार अपने यहां जगह क्यों दे रहे हैं।
अंधविश्वास से जुड़े विज्ञापनों की संख्या भी कम नहीं होती, इस पेज पर। घर बैठे प्रेम विवाह, जादू टोना, वशीकरण, दुश्मन से छुटकारा जैसे काम करने का दावा करने वाले लोगों को प्रचार देने का काम भी ये अखबार कर रहे हैं।
वहीं दूसरी तरह जादू टोने और तंत्र के नाम पर होने वाले अपराध की खबरें भी इन्हीं अखबारों में पेश होती हैं। क्या यह दोहरापन नहीं है। क्या खुद काे समाज से जुडा बताने वाले मीडिया को इस तरह के विज्ञापनों को हतोत्साहित नहीं करना चाहिए।
मेरे दिल और दिमाग को इस दोहरेपन ने कौंध दिया था, इसलिए मैंने इसको लिख दिया। अब यह निर्णय आपको करना है, मैंने यह सही किया है या नहीं। मैं सही हूं या गलत। अगर मैं गलत हूं तो इस तरह विज्ञापनों को समाज और कानून के दायरे में रहते हुए कैसे सही ठहराया जा सकता है, कृपया बताना होगा।

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

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