agricultureAnalysisFeatured

अश्व गंधा की खेती के फायदे

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
दून विश्वविद्यालय, देहरादून

भारत में अश्वगंधा अथवा असगंध जिसका वानस्पतिक नाम वीथानीयां सोमनीफेरा है, यह एक महत्वपूर्ण औषधीय फसल के साथ-साथ नकदी फसल भी है। यह पौधा ठंडे प्रदेशो को छोड़कर अन्य सभी भागों में पाया जाता है। मुख्य रूप से इसकी खेती मध्यप्रदेश के पश्चिमी भाग में मंदसौर, नीमच, मनासा, जावद, भानपुरा तहसील में व निकटवर्ती राज्य राजस्थान के नांगौर जिले में होती है। नागौरी अश्वगंधा की बाजार में एक अलग पहचान है।

इस समय देश में अश्वगंधा की खेती लगभग 5000 हेक्टेयर में की जाती है जिसमें कुल 1600 टन प्रति वर्ष उत्पादन होता है जबकि इसकी मांग 7000 टन प्रति वर्ष है। अश्वगंधा एक मध्यम लम्बाई (40 से. मी. से 150 से. मी.) वाला एक बहुवर्षीय पौधा है। इसका तना शाखाओं युक्त, सीधा, धूसर या श्वेत रोमिल होता है। इसकी जड़ लम्बी व अण्डाकार होती है। पुष्प छोटे हरे या पीले रंग के होते है। फल 6 मि. मी चौड़े, गोलाकार, चिकने व लाल रंग के होते हैं। फलों के अन्दर काफी संख्या में बीज होते हैं।

अश्वगंधा की जड़ों में 13 एल्कलायड पाये जाते है जिनकी मात्रा 0.13 से 0.51 प्रतिशत होती है। जड़ों में प्रमुख अल्कलायड निकोटीन, सोम्नीफेरीन, विथेनीन, बिथेनेनीन, सोमिनीन, कोलीन, विथेफेरिन है। पत्तियों में विथेनीन, विथेफेरिन-ए अल्कलायड पाये जाते हैं, इनके अतिरिक्त इनमे ग्लाइकोसाइड, विटानिआल, स्टार्च, शर्करा व अमीनो अम्ल भी पाये जाते है।

खारे पानी से भी इस फसल को उगाया जा सकता है। इसकी लवण सहनशीलता 16 ई. सी. तक होती है। खारे पानी के उपयोग से इसकी गुणवता में 2 से 2) गुणा वृद्धि होती है। अल्कलायड की मात्रा 0.5 से बढ़कर 1.2 प्रतिशत हो जाती हैं। इसे भारतीय जिनसेंग की संज्ञा दी गई है जिसका उपयोग शक्तिवर्धक के रूप में किया जा रहा है। इसके नियमित सेवन से मानव में रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है।

इसकी निरन्तर बढ़ती मांग को देखते हुए इसके उत्पादन की अपार संभावनाएं हैं। एक हेक्टेयर में अश्वगंधा पर अनुमानित व्यय रुपये 10000/- आता है जबकि लगभग 5 क्विंटल जड़ों तथा बीज का वर्तमान विक्रय मूल्य लगभग 78,750 रुपये होता है। इसलिए शुद्ध-लाभ 68,750 रुपये प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है। उन्नत प्रजातियों में यह लाभ और अधिक हो सकता है।

कैंसर और मानसिक रोगों के लिए असरदार औषधीय गुणों से भरपूर अश्वगंधा की खेती अब सूबे के किसान कर सकेंगे। हिमाचल में समुद्रतल से 14 सौ मीटर से नीचे वाले क्षेत्रों में पारंपरिक खेती से हटकर विकल्प के तौर पर अश्वगंधा की खेती अपनाई जा सकती है। आयुर्वेदिक औषधीय पौधे को बिलासपुर, ऊना, मंडी, कांगड़ा, सोलन, सिरमौर, हमीरपुर और कुल्लू में आसानी से उगाए जा सकेगा।

रिसर्च के बाद इसका खुलासा राष्ट्रीय आयुष मिशन (एनएएम) के अंतर्गत राज्य औषधीय पादप बोर्ड क्षेत्रीय और सुगमता केंद्र उत्तर भारत जोगिंद्रनगर के अधिकारियों ने किया है। बोर्ड के माध्यम से खेती करने पर किसानों को वित्तीय सहायता भी मिलेगी। जिसमें प्रति हेक्टेयर लगभग 11 हजार रुपये का प्रावधान किया गया है। किसान व्यक्तिगत या सामूहिक तौर पर अश्वगंधा की की खेती अपना सकते हैं। क्षेत्रीय निदेशक, क्षेत्रीय और सुगमता केंद्र उत्तर भारत डॉ. अरुण चंदन ने इसकी पुष्टि की है।

एक एकड़ से 12 हजार तक शुद्ध आय रिसर्च के दौरान आंकड़े सामने आए हैं कि 7-8 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के लिए पर्याप्त होता है और इसकी रोपाई जून-जुलाई नर्सरी के दो महीने बाद की जा सकती है। पौधों को 4-6 इंच की दूरी पर प्रत्यारोपित किया जाता है। अश्वगंधा की फसल मात्र 5-6 महीने में ही तैयार हो जाती है। प्रति एकड़ इसकी उपज 250 से 300 किलोग्राम तक रहती है।

आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में अश्वगंधा की माँग इसके अधिक गुणकारी होने के कारण बढ़ती जा रही है। उत्तरखंड में भी इसकी खेती की जाती है जड़ी-बूटियों की खेती सिर्फ किसानों को मालदार ही नहीं बना रही, बल्कि इससे कई बार अंतरराष्ट्रीय सद्भावना को भी बल मिल रहा है। मसलन, हाल ही में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपने राज्य से नेपाल की भौगोलिक परिस्थितियों की तुलना करते हुए वहां की धरोहर जड़ी बूटियों और जैविक खेती के माध्यम से रोजगार को बढ़ावा देने की पहल की है।

औषधीय जड़ी-बूटियों की खेती किसानों को हरित क्रांति का एहसास करा रही है। इसकी सफलता को देखते हुए ही अब जड़ी-बूटियों की खेती पाठ्यक्रम में शामिल करने की मांग होने लगी है। वैज्ञानिक औषधीय पादपों के संवर्धन और संरक्षण के लिए औषधीय पादपों को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने पर जोर दे रहे हैं। उनका मानना है कि इसे आजीविका से जोड़कर ग्रामीणों की आर्थिकी मजबूत की जा सकती है। पूरे विश्व का रुझान आज आयुर्वेद की तरफ है।

आयुर्वेद भारत की प्राचीन विधा है, इसके संवर्धन और संरक्षण के लिए व्यापक तैयारियां करनी होंगी। पढ़े-लिखे काश्तकार जड़ी-बूटी के क्षेत्र में अच्छी तरक्की कर सकते हैं। सबसे बड़ी बात तो ये है कि जड़ी-बूटियों की खेती को वन्य जीवों से भी खतरा नहीं है। जहां पर किसानों ने केसर उगाने की कोशिश की और उसी तकनीक की मदद उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में भी औषधीय पादपों की खेती करने के लिए ली जा सकती है.लेकिन अब जल्द ही उत्तराखंड में चीन सीमा के करीब केसर के खेत देखने को मिल सकते हैं. ऐसी को यदि बागवानी रोजगार से जोड़े तो अगर ढांचागत अवस्थापना के साथ बेरोजगारी उन्मूलन की नीति बनती है तो यह पलायन रोकने में कारगर होगी उत्तराखण्ड हिमालय राज्य होने के कारण बहुत सारे बहुमूल्य उत्पाद जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग है.

Rajesh Pandey

राजेश पांडेय, देहरादून (उत्तराखंड) के डोईवाला नगर पालिका के निवासी है। पत्रकारिता में  26 वर्ष से अधिक का अनुभव हासिल है। लंबे समय तक हिन्दी समाचार पत्रों अमर उजाला, दैनिक जागरण व हिन्दुस्तान में नौकरी की, जिनमें रिपोर्टिंग और एडिटिंग की जिम्मेदारी संभाली। 2016 में हिन्दुस्तान से मुख्य उप संपादक के पद से त्यागपत्र देकर बच्चों के बीच कार्य शुरू किया।   बच्चों के लिए 60 से अधिक कहानियां एवं कविताएं लिखी हैं। दो किताबें जंगल में तक धिनाधिन और जिंदगी का तक धिनाधिन के लेखक हैं। इनके प्रकाशन के लिए सही मंच की तलाश जारी है। बच्चों को कहानियां सुनाने, उनसे बातें करने, कुछ उनको सुनने और कुछ अपनी सुनाना पसंद है। पहाड़ के गांवों की अनकही कहानियां लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं।  अपने मित्र मोहित उनियाल के साथ, बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से डेढ़ घंटे के निशुल्क स्कूल का संचालन किया। इसमें स्कूल जाने और नहीं जाने वाले बच्चे पढ़ते थे, जो इन दिनों नहीं चल रहा है। उत्तराखंड के बच्चों, खासकर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए डुगडुगी नाम से ई पत्रिका का प्रकाशन किया।  बाकी जिंदगी की जी खोलकर जीना चाहते हैं, ताकि बाद में ऐसा न लगे कि मैं तो जीया ही नहीं। शैक्षणिक योग्यता - बी.एससी (पीसीएम), पत्रकारिता स्नातक और एलएलबी, मुख्य कार्य- कन्टेंट राइटिंग, एडिटिंग और रिपोर्टिंग

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button